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[३५] विषय
समझे नहीं' इसके लिये सर्वदा प्रयत्नशील होते हैं । ये अज्ञानप्रमाद दोषसे युक्त होनेसे धर्मके मर्मज्ञ नहीं होते। विषयकषायोंसे पीडित ये कर्म बांधनेमें दक्ष होते हैं , सावधव्यापारोंमें लगे रहते हैं, और ये रत्नत्रयके आराधन विना ही मोक्ष होता है' ऐसा उपदेश देते हैं। इनका कभी भी मोक्ष नहीं होता । ये तो संसारचक्रमें ही फिरते रहते हैं।
॥ इति प्रथम उद्देश ॥
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॥ अथ द्वितीय उद्देशः।। १ प्रथम उद्देशके साथ द्वितीय उद्देशका सम्बन्धकथन २ प्रथम सूत्र और छाया। ३ इस लोकमें कितनेक षड्जीवनिकायोंके रक्षक संयमी मुनि
होते हैं। वे मनुष्यजन्म-आर्यक्षेत्रादिको कर्मक्षपणका अवसर समझते हैं। वे कर्मक्षपणके क्षणका अन्वेषण करते रहते हैं। इस सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मार्गका उपदेश तीर्थंकरोंने किया है। साधु कभी भी प्रमाद नहीं करें किसी भी जीवको आसाता नहीं पहुंचावे। इस संसारमें मनुष्योंकी रुचि भिन्नर होती है इस लिये सुखदुःख भी सबके लिये समान नहीं है। इसलिये मुनि हिंसा मृषावाद आदिसे रहित होकर, परीषहोपसगौसे स्पृष्ट होता हुआ भी उन शब्दस्पर्शादिविषय
जनित परीषहोंको जीतनेका प्रयत्न करे । ४ द्वितीय सूत्र और छाया। ५ परीषहोंको जीतनेवाला मुनि शमितापर्याय अथवा सम्य
पर्याय कहा जाता है । इस प्रकारका मुनि चारित्रमोहनीयादि अथवा हिंसादि पापकर्नामें आसक्त नहीं होता है। यदि उसको कभी शीघ्र प्राण लेनेवाले शूलादि रोग, जो कि आतङ्क
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श्री. मायाग सूत्र : 3