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________________ 23 भारत की सन्नारियां (सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः) 'समर्पण' का अर्थ है- किसी के प्रति अनन्य आस्था व श्रद्धा भाव रखकर, उससे जुड़ना । समर्पण व्यावहारिक जगत् में भी उपयोगी है और अध्यात्मिक क्षेत्र में भी। अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित होकर ही कोई व्यक्ति उस लक्ष्य को पाने में सफल हो पाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भक्ति-मार्ग के साधक को प्रभु व आराध्य के प्रति पूर्णतः समर्पित होना पड़ता है । भगवद्गीता में भक्ति-मार्ग के प्रसंग में श्री कृष्ण ने स्वयं कहा हैये तु सर्वाणि कर्माणि, मयि संन्यस्य मत्पराः । अनन्येनैव योगेन, मां ध्यायन्त उपासते ॥ तेषामहं समुद्धर्ता, मृत्युसंसार - सागरात् । कौन्तेय प्रतिजानीहि, न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ (गीता - 12/6-7) - जो लोग समस्त कार्यों को मेरे प्रति समर्पित कर, अनन्य भाव से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मैं उक्त लोगों को मृत्यु-संसार रूपी सागर (में डूबने) से बचाता हूं। हे अर्जुन! मैं दावे से कहता हूं कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता । भक्त और भगवान् के इस अनन्य आस्था भरे सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए भागवत में भगवान ने कहा है द्वितीय खण्ड/ 315
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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