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________________ प्रथम दिन संगम देव ने अनेक उपसर्ग उपस्थित किए।लेकिन वह महावीर को विचलित न कर सका। उसने महावीर के विरूद्ध लम्बी लड़ाई लड़ने का निश्चय कर लिया। यह लड़ाई छः माह तक चली। अनगिनत उपायों से संगम ने महावीर की समाधि तोड़ने के यत्न किए लेकिन वह असफल रहा। देव का धैर्य डोल गया। महावीर से पराजय स्वीकार करके वह लौट चला। संगम को लौटते देख महावीर के नेत्रों में आंसू भर आए। संगम ने लौटकर देखा ।उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।उसने प्रभु से कहा-“भगवान् आपकी आंखों में आंसू क्यों? अब तो आप कष्ट मुक्त हो रहे हैं। मैं जा रहा हूं।" __ "तुम्हारे कष्टमय भविष्य को देखकर।" महावीर बोले"संगम! तुमने इतने आंसू संचित कर लिए हैं कि उन्हें बहाने के लिए कोटिशः जन्म भी कम पड़ेंगे। पीड़ा में डूबे तुम्हारे भविष्य पर दृष्टिपात करके मेरा हृदय द्रवित हो उठा है।" संगम महावीर के चरणों से लिपट कर रो पड़ा। बोला"मुझे क्षमा कर दो देवाधिदेव! देवराज का कथन अक्षरशः सत्य था कि आपकी महिमा अकथ्य है। आप महान् हैं। अपरम्पार हैं।' रोता हुआ संगम अपने लोक को लौट गया। [२] श्रीकृष्ण की क्षमा (वैदिक) वासुदेव श्रीकृष्ण जैन और वैदिक- दोनों धाराओं के स्वीकृत महापुरुष हैं। श्रीकृष्ण तीन खण्ड के अधिपति वासुदेव थे। वे अपूर्व महिमाशाली और अपरिमित बलशाली थे। क्षमा उनकी परम विशिष्टता थी। अपरिमित बलशील होते हुए भी वे सदैव क्षमा की मूर्ति बने रहे। उनके जीवन के अनेक प्रसंगों से उनकी तितिक्षा तथा क्षमाशीलता का परिचय मिलता है। उनकी बिदायगी का पल भी उनकी अपूर्व क्षमा का चित्र प्रस्तुत करता है। अनेक बार सम्पन्नता के शिखर से दुर्गुणों की सरिता बहती है। यादवों के साथ यही घटा । श्रीकृष्ण के कुशल नेतृत्व की शीतल छाया में यादव कुल ने परमोन्नति की। सम्पन्नता के शिखर चूमे। सम्पन्नता के साथ ना hि TM की सारin front -
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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