SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचमः सर्गः ८३. तद्वेषभाग्भिरभिभूति विभूतिभूतेनैजानुगा: कुलपरम्परनामजैमाः । व्युग्राहितात इह तान् प्रसितुं प्रणुन्नाः, प्रोत्साहिता ननु सुरोचनवन्नियुक्ताः ॥ अब साधुओं ने इन श्रावकों की इस पराभूति से खिन्न हो कुलपरम्परा के अपने अनुयायी श्रावकों को उन सत्यनिष्ठ श्रावकों के विरुद्ध भड़काया और उन्हें दुःख देने की प्रेरणा दी, जैसे कि पाण्डवों के विपक्ष में दुर्योधन ने सुरोचन को । ८४. तेऽपि प्रभाविरहिता रहिता विवेकैः, क्लिष्यन्ति तानुपहसन्ति तुदन्त्यतन्ति । निन्दन्ति संपिशुनयन्ति विनाशयन्ति, व्यर्थं द्विषन्ति विवशा बहु भीषयन्ति ॥ प्रेरित होकर उन उनको कष्ट देने विवेकशून्य और निष्प्रभ श्रावक भी इस प्रकार श्रावकों को क्लेश पहुंचाने लगे, उनका उपहास करने लगे, लगे, उनको इधर-उधर करने लगे, उनकी निन्दा और चुगली करने लगे । वे व्यर्थ ही द्वेष करते हुए उनके विनाश के लिए प्रयत्न करते थे और उन्हें विवश जानकर नाना प्रकार से डराते-धमकाते थे । ८५. सम्बन्धसन्धिपरिभेदभिदेलिमाः स्व जास्तिरस्कृतिकृतेऽपि न पृष्ठगाः स्युः । दुर्वारवारसमये ऋणमार्गणाद्यैः, संक्लेशितुं निकषितुं न हि तेऽवशेषाः || १५३ वे पक्षान्ध श्रावक इतने आगे बढ़ गये कि आर्थिक संकट उत्पन्न होने पर दिये हुए ॠण को मांगना, किये हुए वैवाहिक संबंधों को तोड़ना आदि से उनको संक्लेश पहुंचाने, उनकी कसौटी करने तथा जाति- बहिष्कार करने पर भी उतारू हो गए । ८६. तैः पत्रले 'नवनवाभिरुदीरणाभि ग्राह्य तत्परवशा विवशा विधाय । तामिः प्रकारितमहाकल होत्प्लवाद्येरस्पर्शिता न निहिता पुरुषाथिनोऽपि ।। १. पत्रलं – शिथिल, ढीला (द्रप्स पत्रलमित्यपि - अभि० ३।७० )
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy