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________________ १५२ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ७९. तेषां त एव विविस्त्विति वावदूकैः, संवेदनीयमिदमात्मिकशुद्धबोधः। आत्मीकृताः कथमिमे कथमिज्यमाना, निर्मीयते किमुत बालिशताविलासः ।। 'साधुओं की साधु जाने'-- ऐसा कहने वाले अपने शुद्ध आत्म-संवेदनाओं के आधार पर सोचें कि उन्होंने इन गुरुओं को कैसे स्वीकार किया और क्यों ये उनके द्वारा पूजे जाते हैं ? ऐसा न सोचना मूर्खता है । ८०. वेषोऽभिवन्द्य विषयोऽविषयाथिनां चे दाकल्पकल्पितविदूषकसन्नपीज्यः । नीरागयागपरभागविभागभग्नं, नेपथ्यमिज्यमहिमानमुपैति नैव ॥ मोक्षार्थियों के लिए सिर्फ वेष ही अभिवन्द्य हो तब तो वेष बनाकर आया हुआ बहुरूपिया (विदूषक) भी वन्दनीय होना चाहिए, पर तीर्थंकरों के तीर्थ चतुष्टय में गुणशून्य वेष पूजार्ह नहीं होता। ८१. एतान् प्रसादयितुमात्महितं निहत्य, मिथ्यात्वसेवनमिदं मतिमान् क एता। को भस्मसात् स्वभवनं प्रकरोति लोककी विना जगति मूर्खशिरोवतंसम् ॥ मूर्ख शिरोमणी के अतिरिक्त कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो अपने घर को जलाकर, राख कर, संसार में कीर्ति प्राप्त करना चाहेगा ? वैसे ही अपने साधुओं को प्रसन्न रखने के लिए कौन बुद्धिमान् व्यक्ति अपने आत्महित का हनन कर मिथ्यात्व का सेवन करेगा? ५२. इत्थं दृढान्तरहृदा सुहृदां वरेस्तै मकीकृता ऋतनयोत्तरतारतम्यैः। अन्तविविक्षव इवाऽनिविडाध्वपोषा, क्षोणी खनन्त उदरम्भरयोऽभवंस्ते । उन सत्यनिष्ठ श्रावकों के सत्य एवं न्यायपूर्ण उत्तरों से निरुत्तर हो, वे शिथिलाचार के पोषक उदरंभरी श्रावक परों से जमीन कुरेदने लगे, मानो कि वे लज्जा से भूमिगत हो जाना चाहते हों।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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