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________________ जैन-योग-पद्धति और उस पर अन्य योग-पद्धतियों का प्रभाव 1 भारतीय मूल के अन्य धर्मों की तरह जैनधर्म भी योग और ध्यान को आध्यात्मिक उन्नति और विकास का अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन मानता हैं उत्तराध्यनसूत्र (28/35) के अनुसार व्यक्ति सम्यग्ज्ञान द्वारा स्वयं की आत्मा की प्रकृति को जान सकता है, सम्यग्दर्शन या सम्यक् - अनुभूति द्वारा उस पर विश्वास कर सकता है। इसी तरह व्यक्ति सम्यक् - चरित्र द्वारा उस नियंत्रण या संयम कर सकता है, लेकिन आत्म-शुद्धि केवल सम्यक् तप के द्वारा ही की जा सकती है। जैन विचारधारा के अनुसार तप के दो प्रकार हैं - बाह्य और आन्तरिक । आन्तरिक तप के दो महत्वपूर्ण भेद हैं, जिनको ( 1 ) ध्यान अर्थात् एकाग्रता और (2) कार्योत्सर्ग (त्याग) अर्थात् अपने शरीर और सांसारिक संबंधों के प्रति विराग-भाव कहा जाता है। जैन परम्परा के अनुसार आत्मोन्नति (Emancipation) जो कि हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है, केवल शुक्ल- ध्यान के द्वारा ही प्राप्तव्य है जो आत्मा-सजगता (Self-awareness) या आत्म-ज्ञान की स्थिति है । इस प्रकार जैन विचारधारा के अनुसार आत्मोन्नति केवल ध्यान द्वारा सम्भव है जो कि पतंजली की योग-पद्धति का सम्यक् सोपान भी है । इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि ध्यान और योग जैनधर्म के अनिवार्य अंग है । समस्त जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ भी केवल ध्यानमुद्रा ही पाई जाती है, किसी भी अन्य मुद्रा में नहीं है । इससे जैन विचारधारा में योग और ध्यान का महत्व स्वतः ही प्रकट है, किसी भी अन्य मुद्रा में नहीं है । इससे जैन विचारधारा में योग और ध्यान का महत्व स्वतः ही प्रकट हो जाता है । यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि सामान्यतः योग का परम लक्ष्य चित्तवृत्तिनिरोध है, जैन परम्परा में भी योग साधना का लक्ष्य योग नहीं किन्तु अयोग ही है, अर्थात मन् वाणी और काया की समस्त क्रियाओं का निरोध (Cessation)। योगदर्शन में भी योग को चित्तवृत्ति निरोध ही कहा गया है ( योगश्चित्तवृत्ति निरोध) । वर्तमान काल में जैन योग परम्परा के विकास के संदर्भ में पं. सुखलाल जी ने समदर्शी हरिभद्र नामक कृति में जैनयोग पर एक अध्याय लिखा है। प्रो. जैन धर्मदर्शन 455
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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