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________________ येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः। ते मृत्यु लोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। तात्पर्य यह कि मनुष्य जाति के सच्चे विकास हेतु भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रवृत्तियों में संतुलन स्थापित करना होगा। यदि मानव जीवन के सम्पूर्ण पक्ष को भौतिकता के आवरण में दबाने का प्रयत्न किया गया तो निश्चित रूप से मानवजाति अपने अंतिम प्रयाण की तैयारी करेगी। वर्तमान भौतिकवाद ने मनुष्य को जिस स्थान पर खड़ा कर दिया है, विनाश का अंधकूप उससे अधिक दूर नहीं है। भौतिक आवश्यकताएँ ही जीवन का सर्वस्व नहीं। हमारे पास पेट के साथ मस्तिष्क भी है। ईसा ने कहा है : Man shall not live by bread alone (ch-4th,ver-4, सेण्ट मैथ्यू)। रोटी पेट की क्षुधा को शांत कर सकती है लेकिन हमारे मानस के लिए कुछ और भी चाहिए जो हमारी आत्मा की, हमारे मानस की क्षुधा को मिटा सके। दूसरे, किसी एक दिशा में निर्बाध गति से बढ़ना प्रगति का सच्चा मार्ग नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किसी स्थान पर कहा है - स्वरों को निरंतर बढ़ाते जाने पर हमें केवल चीख के अतिरिक्त कुछ मिलने वाला नहीं है। तात्पर्य यह कि यदि हम आवश्यकताओं की वृद्धि की ओर निरन्तर बढ़ते रहें तो अन्त में हमें दुःख और अशांति के सिवाय कुछ मिलने वाला नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी यूरोप यात्रा में मिलान (इटली) के भाषण में इस एकांगी वैज्ञानिक भौतिक प्रगति की आलोचना करते हुए कहा था - "For man to come near to one another and yet to continue to ignore the claims of humanity is assure process of suicide "6 तात्पर्य यह है कि मनुष्य वैज्ञानिक प्रगति के कारण एक दूसरे के निकट आ गया है, लेकिन ऐसी स्थिति में मानवीय गुणों का विकास न करते हुए मानवता के दावों को दबाना मनुष्य जाति के लिए आत्महत्या का पथ तैयार करना है। भारतीय विचारकों ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि भौतिकता या प्रेय के मार्ग पर व्यक्ति हमेशा बढ़ना चाहता है क्योंकि पूर्व संस्कार इसमें सहयोगी होते रहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव को भोग मार्ग पर चलने की आदत अनेक जन्मों से पड़ी हुई है। अतएव विद्वानों को हमेशा संयम के मार्ग पर, त्याग के मार्ग पर, चलने की प्रेरणा देनी चाहिए। वास्तव में हम गलत दिशा में बढ़ रहे हैं। भोग का मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है, वह ढलान या उतार की दिशा है, उसमें प्राणी स्वाभाविक रूप से गति करता रहता है जबकि त्याग का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, वह चढ़ाई का रास्ता है, उसके लिए 450 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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