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________________ इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मर्यादाओं का पालन आवश्यक और अनिवार्य है। सभी मर्यादाओं का पालन संयम नहीं कहला सकता, लेकिन यदि सभी मर्यादाएँ स्वेच्छा से स्वीकार कर ली जाती हैं तो उनके पीछे अव्यक्त रूप में संयम का भाव छिपा रहता है। वे ही मर्यादाएँ संयम कहलाने की अधिकारी हैं जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मविकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है। ऊपर हमने संयम की सामान्य आवश्यकता के सम्बन्ध में विचार किया। अब हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि वर्तमान परिस्थितियों में संयम का स्थान क्या है? वर्तमान युग भौतिकवाद का युग है। आज के युग में संयम का स्थान नगण्य-सा होता जा रहा है। हम मानवजाति के विकास हेतु जिन साधनों का प्रयोग कर रहे हैं उनका एक मात्र लक्ष्य है 'आवश्यकताओं की असीमित वृद्धि और उनकी पूर्ति का निरन्तर प्रयास' । इस प्रकार वर्तमान युग में आवश्यकताओं की वृद्धि के मार्ग पर मानव अबाध गति से बढ़ रहा है और अर्थशास्त्री तथा वैज्ञानिक इसे प्रगति का पूर्ण अंग मानकर इस कार्य को गति प्रदान कर रहे हैं। ____भौतिक आवश्यकताओं का जीवन में स्थान है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। हमारे यहाँ कहा गया है 'भूखे भजन न होइ गोपाला' । भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य है, किन्तु उसकी भी एक सीमा है। कबीरदास न इस तथ्य को अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है - कबीरा सरीर सराय है, भाड़ा देके बस। जब भठियारी खुश रहे, तब जीवन का रस' ।। इसमें कबीर के शब्दों की अभिव्यंजना को देखिये। सम्पूर्ण दोहे में भौतिक आवश्यकता को शरीर के लिए आवश्यक मानते हुए भी उन्होंने शरीर को सराय कहकर यह भाव व्यक्त कर दिया कि यह न तो अपना ही है और न आदर्श ही, वरन् यह आध्यात्मिक विकास यात्रा का पड़ाव मात्र है। हमारी यात्रा का लक्ष्य तो है उस आध्यात्मिक आदर्श को प्राप्त करना, जो कि अपना है। लेकिन जिस प्रकार पथिक को अपनी यात्रा में बढ़ने के लिए बीच-बीच में सराय के मालिकों को किराया देकर विश्राम करना भी आवश्यक है, उसी प्रकार हमें जीवन में भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी जरूरी होता है। . भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना कर आध्यात्मिक आदर्शों की बात नहीं की जा सकती है। मनुष्य में पाशविक और दैवी दोनों वृत्तियों का संयोग है। यदि मनुष्य में निम्न वृत्तियों का अभाव हो जाता है। तो वह मनुष्य से देव बन जाता है और इसी प्रकार यदि उसमें दैवी वृत्तियों का अभाव होता है तो वह पशु ही कहला सकता है। कहा भी है - जैन धर्मदर्शन 449
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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