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________________ साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं दृष्टि भी मूल्य-बोध से प्रभावि होती है। इस प्रकार मूल्य-बोध और मनुष्य की जीवन-दृष्टि परस्पर सापेक्ष है । अरबन का यह कथन कि मूल्यांकन मूल्य को निर्धारित नहीं अपितु मूल्य ही अपनी पूर्ववर्ती वस्तुनिष्ठता के द्वारा मूल्यांकन को प्रभावित करते हैं, आंशिक सत्य ही कहा जा सकता है। मूल्य न तो पूर्णतया वस्तुतन्त्र है और न आत्मतन्त्र ही । हमारा मूल्य बोध आत्म और वस्तु दोनों से प्रभावित होता है। सौंदर्य-बोध में, काव्य के रस-बोध में आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के इन दोनों पक्षों को स्पष्ट रूप में देखा जा साकता है सौंदर्य-बोध अथवा काव्य की रसानुभूति न पूरी तरह कृति सापेक्ष है, न पूरी तरह आत्म-सापेक्ष । इस प्रकार हमें यह मानना होगा कि मूल्यांकन करने वाली चेतना और मूल्य दोनों ही एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं । मूल्यांकन की प्रक्रिया में दोनों परस्पराश्रित हैं । एक ओर मूल्य अपनी मूल्यवत्ता के लिए चेतना सत्ता की अपेक्षा करते हैं दूसरी ओर चेतना सत्ता मूल्य-बोध के लिए किसी वस्तु, कृति या घटना की अपेक्षा करती है । मूल्य न तो मात्र वस्तुओं से प्रकट होते हैं और न मात्र आत्मा से । अतः मूल्य-बोध की प्रक्रिया को समझाने में विषयितंत्रता या वस्तुतंत्रता ऐकांतिक धारणाएँ हैं । मूल्य का प्रकटीकरण चेतना और वस्तु (यहाँ वस्तु में कृति या घटना अन्तर्भूत हैं) दोनों के संयोग में होता है । पेरी सीमा तक सत्य के निकट हैं जब वे यह कहते हैं कि मूल्य वस्तु और विचार के ऐच्छिक सम्बन्ध में प्रकट होते हैं । मूल्यों की तारतम्यता का प्रश्न 1 मूल्य-बोध के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, मूल्यों के तारतम्य का बोध । हमें केवल मूल्य-बोध नहीं होता अपितु मूल्यों के उच्चावच क्रम का या उनकी तारतम्यता का भी बोध होता है । वस्तुतः हमें मूल्य का नहीं अपितु मूल्यों का, उनकी तारतम्यता- सहित बोध होता है । हम किसी भी मूल्य - विशेष का बोध मूल्य-विश्व में ही करते हैं, अलग एकाकी रूप में नहीं । अतः किसी मूल्य के बोध के समय ही उसकी तारतम्यता का भी बोध हो जाता है, किन्तु यह तारतम्यता का बोध भी दृष्टि-निरपेक्ष नहीं होकर दृष्टि - सापेक्ष होता है । हम कुछ मूल्यों का उच्च मूल्य और कुछ मूल्यों को निम्न मूल्य कहते हैं किन्तु मूल्यों की इस उच्चावचता या तारतम्यता का निर्धारण कौन करता है? क्या मूल्यों की अपनी कोई ऐसी व्यवस्था है जिसमें निरपेक्ष रूप से उसकी तारतम्यता को बोध हो जाता है? यदि मूल्यो की तारतम्यता की कोई ऐसी वस्तुनिष्ठ व्यवस्था होती है तो फिर तारतम्यता की कोई ऐसी वस्तुनिष्ठ व्यवस्था होती है तो फिर तारतम्यता सम्बन्धी हमारे विचारों में मतभेंद नहीं होता। किन्तु स्थिति ऐसी नहीं है । अतः स्पष्ट है कि मूल्यों की तारतम्यता का बोध भी दृष्टि - सापेक्ष है। जैन धर्मदर्शन 303
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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