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________________ अपना प्रभाव डालते हैं और हमारे मूल्यांकन प्रभावित करते हैं । इस प्रकार मूल्य एक सहज प्रक्रिया न होकर एक जटिल प्रक्रिया है और उसकी इस जटिलता में ही उसकी सापेक्षता निहित है । जो आचार किसी देश, काल परिस्थिति विशेष में शुभ माना जाता है वही दूसरे देश, काल और परिस्थिति में अशुभ माना जा सकता है। सौंदर्य-बोध, रसानुभूति आदि के मानदण्ड भी देश, काल और व्यक्ति के साथ परिवर्तित होते रहते हैं । आज सामान्यजन फिल्मी गानों में जो रस-बोध पाता है वह उसे शास्त्रीय संगीत में नही मिलता है । इसी प्रकार रुचि भेद भी हमारे मूल्य-बोध को एवं मूल्यांकन को प्रभावित करता है । वस्तुतः मूल्य-बोध की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था नहीं है । जो विचारक यह मानते हैं कि मूल्य-बोध एक प्रकार का सहज ज्ञान है, वे उसके स्वरूप से ही अनभिज्ञ हैं । मात्र यही नहीं, रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में और तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में भी अन्तर है । रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में मात्र भावपरक पक्ष की उपस्थिति पर्याप्त होती है, उसमें विवेक का कोई तत्त्व उपस्थित हो ही यह आवश्यक नहीं है, किन्तु तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में किसी न किसी विवेक का तत्त्व अवश्य ही उपस्थित रहता है । मूल्य-बोध और मूल्य-लाभ सक्रिय एवं सृजनात्मक चेतना के कार्य हैं। मूल्य-बोध और मूल्य-लाभ में मानवीय चेतना के विविध पक्षों का विविध आयामों में एक प्रकार का द्वन्द्व चलता है । वासना और विवेक अथवा भावना या विवेक के अन्तर्द्वन्द्व में ही मनुष्य मूल्य-विश्व का आभास पाता है यद्यपि मूल्यांकन करने वाली चेतना मूल्य-बोध में इस द्वन्द्व का अतिक्रमण करती है। वस्तुतः इस द्वन्द्व में जो पहलू विजयी होता है उसी के आधार पर व्यक्ति की मूल्य - दृष्टि बनती है और जैसी मूल्य - दृष्टि बनती है वैसा ही मूल्यांकन या मूल्य-बोध होता है । जिनमें जिजीविषा प्रधान हो, जिनकी चेतना को जैव प्रेरणाएँ ही अनुशासित करती हों उन्हें रोटी अर्थात् जीवन का संवर्द्धन ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है, किन्तु अनेक परिस्थितियों में विवेक के प्रबुद्ध होने पर कुछ व्यक्तियों को चारित्रिक एवं अन्य उच्च मूल्यों की उपलब्धि हेतु जीवन का बलिदान ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है । किसी के लिए वासनात्मक एवं जैविक मूल्य ही परम मूल्य हो सकते हों और जीवन सर्वतोभावेन रक्षणीय माना जा सकता हो, किन्तु किसी के लिए चारित्रिक या नैतिक मूल्य इतने उच्च हो सकते हैं कि वह उनकी रक्षा के लिए जीवन का बलिदान कर दे। इस प्रकार मूल्यबोध की विभिन्न दृष्टियों का निर्माण चेतना के विविध पहलुओं में से किसी एक की प्रधानता के कारण अथवा देश-काल तथा परिस्थितिजन्य तत्त्वों के कारण होता है और उसके परिणामस्वरूप मूल्य-बोध तथा मूल्यांकन भी प्रभावित होता है । अतः हम कह सकते हैं कि मूल्य-बोध भी किसी सीमा तक दृष्टि - सापेक्ष है, किन्तु इसके जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 302
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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