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________________ जैनविचारणा को मिलना चाहिए। फिर भी यह जान लेना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनदर्शन और वेदान्तदर्शन में सत् के स्वरूप को समझने के लिए इन शैलियों का खुलकर प्रयोग हुआ है। अजैन दर्शनों में सर्वप्रथम बौद्ध आगमों में हम दो दृष्टियों का वर्णन पाते हैं, जहाँ उन्हें नीतार्थ और नेयार्थ कहा गया है। भगवान बुद्ध ने अगुत्तुरनिकाय में कहा है-भिक्षुओ! ये दो तथागत पर मिथ्यारोप करते हैं, कौन से दो? जो नेय्यार्थ-सूत्र (व्यवहारभाषा) को नीतार्थ-सूत्र (परमार्थभाषा) करके प्रगट करता है और नीतार्थ-सूत्र (परमार्थभाषा) को नेय्यार्थ-सूत्र (व्यवहारभाषा) करके प्रगट करता है। बौद्ध दर्शन की दो प्रमुख शाखाओं-विज्ञानवाद और शून्यवाद-में भी तथता या सत् के स्वरूप को समझाने के लिए दृष्टिकोणों की इन शैलियों का उपयोग हुआ है। बौद्ध विज्ञानवाद तीन दृष्टिकोणों का प्रतिपादन करता है (1) परिकल्पित (2) परतन्त्र (3) परिनिष्पन्न। शून्यवाद में नागार्जुन दो दृष्टिकोणों को प्रतिपादन करते हैं- 1 लोकसंवृति सत्य और 2 परमार्थ सत्य ।3 चन्द्रकीर्ति ने लोकसंवृति को भी मिथ्यासंवृति इन दो भागों में विभाजित किया है। इस प्रकार शून्यवाद में भी 1. मिथ्यासंवृति, 2. तथ्यसंवृति और 3. परमार्थ, यह तीन दृष्टिकोण मिलते हैं। वेदान्तदर्शन में शंकर ने भी अपने पूर्ववर्तियों की इस शैली को ग्रहण किया और उन्हें 1. प्रतिभासिक सत्य, 2. व्यवहारिक सत्य और 3. पारमार्थिक सत्य कहा। इस प्रकार जैनागमों ने जिसे व्यवहारनय और निश्चयनय, पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनय अथवा अभूतार्थनय और भूतार्थनय कहा उसे ही बौद्धागमों में नीतार्थ और नेयार्थ कहा गया। विज्ञानवादियों ने उन्हें परतन्त्र और परिनिष्पन्न कहा और शुन्यवाद में उन्हें ही लोकसंवृति और परमार्थ नाम से बताया गया, जबकि शंकर ने व्यवहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य के नाम से अभिहित किया। न केवल भारतीय विचारकों ने अपितु अनेक पाश्चात्य विचारकों ने भी व्यवहार और परमार्थ के दृष्टिकोण को स्वीकार किया है। हिरेक्लिट्स, पारमेनाइडीस, साक्रेटीज, प्लेटो, अरस्तू, स्पिनोजा, कांट, हेगल और ब्रेडले ने भी। किसी-न-किसी रूप में इसे माना है। भले ही उनकी मान्यताओं में नामों की भिन्नतायें ही हों, अन्ततोगत्वा उनके विचार इन्हीं दो नयों अर्थात् व्यवहार और परमार्थ की ओर ही संकेत करते हैं। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि शंकर के प्रतिभासिक, चन्द्रकीर्ति की मिथ्यासंवृति या विज्ञानवाद के परिकल्पित दृष्टिकोणों के समरूप किसी दृष्टिकोण का प्रतिपादन जैनागमों में नहीं है। यदि इनकी तुलना की जानी हो, तो वह किसी सीमा तक जैन विचारणा में मिथ्यादृष्टि से की जा सकती है, यद्यपि दोनों में काफी अन्तर भी है। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द का अशुद्ध निश्चयनय जैन ज्ञानदर्शन 213
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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