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________________ वस्तुतः सत्ता या तत्व (Reality) अपने आप में ही एक पूर्णता हैं, अनन्तता है और अनन्त के अनन्त पक्षों का प्रगटन वाणी और भाषा के माध्यम से सम्भव नहीं हो सकता है। इन्द्रियानुभूति, भाषा और वाणी सभी अनन्त के एकांश को ग्रहण कर पाती है । वही एकांश का बोध नय कहलाता है। उसके अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है वे सभी नय (Standpoints) कहे जाते हैं और इसीलिए जैन विचारकों ने कह दिया था कि जितने वचन के प्रकार अथवा भाषा के प्रारूप ( कथन के ढंग ) हो सकते उतने ही नय के भेद हैं । लेकिन फिर भी जैन विचारकों ने नयों का एक द्विविध वर्गीकरण प्रस्तुत किया था जिसमें अन्य सभी वर्गीकरण भी अन्तर्भूत है । ' जैनागमों भगवती सूत्र में व्यवहार और निश्चय दृष्टि का प्रतिपादन बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है। गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं, भन्ते ! फाणित-प्रवाह गुड़ में कितने रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं ? महावीर इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि गौतम ! मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ । व्यवहारिक नय (लोकदृष्टि) की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है, लेकिन निश्चय नय (वास्तविक दृष्टि) की अपेक्षा से उसमें पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं। इस प्रकार वहाँ अनेक विषयों को लेकर उनका निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि से विश्लेषण किया गया है । वस्तुतः यह निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि का विश्लेषण हमें यही बताता है कि सत् (Reality) न उतना ही है जितना वह हमें इन्द्रियों के माध्यम से प्रतीत होता है और न उतना ही जितना कि बुद्धि उसके स्वरूप का निश्चय कर पाती है । जैनाचर्यों ने सत्य को समझने की इन दोनों विधियों का प्रयोग न केवल तत्वज्ञान के क्षेत्र में ही किया । वरन् आचार दर्शन की अनेक गुत्थियों के सुलझाने में भी इनका प्रयोग किया है आचार्य कुन्दकुन्द ने आगमोक्त इन दो नयों (दृष्टिकोणों) का प्रयोग आत्मा के बन्धन मोक्ष, कर्तृत्व-अकर्तृत्व तथा नैतिक जीवन-प्रणाली या ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से किया है और इनके आधार पर तत्वज्ञान तथा आचारदर्शन सम्बन्धी अनेक विवादास्पद प्रश्नों का समुचित निराकरण भी किया है। यही नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने निश्चय दृष्टि को भी अशुद्ध निश्चय दृष्टि और शुद्ध निश्चयदृष्टि ऐसे दो रूपों में विभाजित किया है और इस प्रकार उनके अनुसार एक व्यवहारनय दूसरा निश्चयनय, तीसरा शुद्ध निश्चयनय ऐसे तीन विभाग बनाये गये। इस प्रकार सत् के निरूपण की इन दो दृष्टियों को दर्शन जगत में प्रस्तुत करने और उनके आधार पर दार्शनिक समस्याओं के निराकरण करने का प्रथम श्रेय जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 212
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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