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________________ 34 आचार्य ज्ञानसागर वाड्मय में नय-निरूपण चाहिए इसी की पुष्टि आचार्य ज्ञानसागरजी ने की है । उन्होंने प्रत्येक अनुयोग के प्रत्येक वाक्य को अपेक्षा से सत्य प्रमाणित किया है । अनुयोगों में वस्तु स्वरूप व्याख्यान में विरोध भी दृष्टिगत होता है किन्तु वह विरोध अपेक्षा दृष्टि से अविरोध के लिए है । 16. व्युत्पत्ति चमत्कार पू. आ. महाराज ने अन्य शब्दों की चमत्कृत करनेवाली व्युत्पत्तियों के साथ ही नयों की भी अतिशय मनोहारी एवं उपयोगी व्युत्पत्तियां की हैं। पहले हमने कुछ प्रस्तुत भी की हैं । जयोदय में इसी प्रकार का एक स्थल दृष्टव्य है । सत्रहवें सर्ग में श्लोक संख्या 90 की स्वोपज्ञ टीका में यह प्रस्तुत की है । देशकालानुसारो वचनपद्धतिप्रकारो नयः • देश काल के अनुसार वचन शैली के विशेष या भेद को नय कहते हैं । कितन सटीक व्युत्पत्ति है । देश काल के विपरीत कथन को स्वयमेव कुनय संज्ञा प्राप्त होती है। कोई भी कथन सर्वत्र सर्वस्थिति में सार्थक नहीं है असत्य ही है। एक स्थल पर उन्होंने लिखा है कि 'अर्हन्त नाम सत्य है' यह वाक्य भले ही समीचीन हो किन्तु विवाह के अवसर पर नहीं बोला जाता उनकी नयरूपता या सत्यता शवयात्रा में ही होती है । 17. अनेकान्त सिद्धि जयोदय में श्री आचार्य ज्ञानसागरजी ने अनेकान्त के महत्त्व को स्थापित किया है । है वीरोदिते समुदितैरिति संवदमः संप्रापितं च 44 दृष्टव्य .................... 11 कल्यप्रभाववशतः प्रतिबोधनाम । मनुजैश्चतुराश्रमित्व मेकान्तवादविनिवृत्तितयाप्ति वित्त्वम् 1145 सर्ग 18॥ भगवान महावीर के द्वारा समर्पित मत अनेकान्तवाद में समुदित-संगठित हुए मनुष्य कलिकाल से प्रभावित न हो, प्रबोध को प्राप्त किया अर्थात् अपने कर्त्तव्यकर्म का निर्धार कर ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और ऋषित्व इन चार आश्रमों को प्राप्त किया तथा एकान्तवाद को छोड़कर स्वस्थता का अनुभव किया । हे राजन् आप यह सब जानते हैं, अतः हम कहते हैं कि आप ज्ञानी हैं । यह सर्वत्र ज्ञातव्य है कि सम्यक् नयों (निश्चय - व्यवहार अथवा इनका विस्तार) के समूह को, सम्यक् एकान्तों के समूह को अनेकान्त कहते हैं । मिथ्या, निरपेक्ष या मिथ्या एकान्तों के समूह को मिथ्या अनेकान्त या अनेकान्ताभास कहते हैं । अनेकान्त सिद्धि का तात्पर्य ही निश्चय-व्यवहार दोनों की सिद्धि से है । पू. महाराज ने तो ऊपर दो बड़ी मार्गदर्शन सूचनायें दी हैं । 1. अनेकान्तवाद में ही संगठन संभव है। वर्तमान जो विघटन है वह एकान्तपक्ष ।
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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