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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 33 द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मिथोद्वयमिदं ननुसव्यपेक्षः । तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ॥12॥ द्रव्यस्यसिद्धौ चरणस्यसिद्धिः द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ । बुद्ध्वेति कर्माविरता पेरेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु ॥13॥ (प्रवचनसार टीकागत श्लोक - चरणानुयोग चूलिका) चरणं द्रव्यानुसार है और द्रव्य चरणानुसार है । अर्थात् दोनों (चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ) सापेक्ष हैं । इसलिए या तो द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा चरण का लेकर (मुख्य कर) मुमुक्षु ( मुनि) मोक्षमार्ग में आरोहण करो (12) द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है यह जानकर कर्मों से अविरत तथा अन्य भी द्रव्यानुयोग से अविरुद्ध ( अनुसार) चरणानुयोग का आचरण करो । - पू. आचार्य ज्ञानसागरजी का हृदय वात्सल्य एवं सत्त्वेषु मैत्रीभाव से आपूर्ण था । वे इस बात से सदैव सावधान रहते थे कि कहीं भी शास्त्र का विरुद्ध अर्थ संपादित न हो । उन्हें तात्कालिक शास्त्र विरुद्ध एवं एकांत निश्चय-व्याख्यान के प्रति जागरुकता थी । अपने वाङ्मय में स्पष्ट रूप से उन्होंने नाम लेकर सदोष वक्तृता का उल्लेख एवं उसका निरसन किया है, जयोदय की स्व-पज्ञ टीका (श्लोक संख्या 41, उत्तरांश सर्ग 15 ) का निम्न वाक्य सूत्र ही ज्ञात होता है “सद्धर्मव्याख्यानमपि व्याख्यातृदोषेण कृत्वा सदोषमेवाधुना भवति विसंवादत्वात् । ". - अर्थ - व्याख्याता (प्रवचनकार) के दोष के कारण समीचीन धर्म का व्याख्यान भी वर्तमान में दोषपूर्ण है क्योंकि उससे विसंवाद होता हैं । यदि वक्ता में दोष है प्रामाणिकता नहीं है विषय - कषाय से विरक्त नहीं है एवं एकान्ती है तो उसका वचन भी प्रमाण की कोटी में नहीं आता । कहा भी है 'वक्तृप्रामाण्यात्वचनप्रामाण्यम् ।' वक्ता की प्रमाणता से वचन की प्रामाणिकता है । आ. ज्ञानसागरजी का निरूपण अत्यन्त प्रामाणिक है उन्होंने जो कुछ भी नय निरूपण किया सभी अनेकान्तात्मक है । उनकी समस्त रचनायें ही निम्न पद्य का अनुसरण करती प्रतीत होती हैं जिसमें जिन देशना के समस्त वाक्यों, समस्त अनुयोगों को ही सत्य एवं सार्थक निरूपित किया है सकल मनेकान्तात्यकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः । किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्केति कर्त्तव्या ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय 23 अर्थ - आचार्य अमृतचन्द्रजी सम्यग्दर्शन के नि:शङ्कित अंग का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सर्वज्ञ भगवान ने सम्पूर्ण वस्तु का अनेकान्तमय स्वरूप वस्तु का अनेकान्तमय स्वरूप कहा है उनकी समस्त देशना अनेकान्तमय है। चाहे निश्चय से कथन या व्यवहार से । उसमें क्या सत्य है क्या असत्य है, अमुक सत्य है अमुक असत्य है यह शंका नहीं करना
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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