SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन और संस्कृति ___ आत्मा का अपना रूप सत्, चित् और आनंदघन है। आत्मा के साथ जो विजातीय सम्बन्ध है, वह हेय है। हेय नहीं छूटता, तब तक आत्मा छोड़ने-लेने की उलझन में फंसा रहता है। हेय छूटते ही वह अपने रूप में आ जाता है। फिर बाहर से न कुछ लेता है और न कुछ लेने की उसे अपेक्षा होती है; शरीर छूट जाता है, शरीर के धर्म छूट जाते हैं। शरीर के मुख्य धर्म चार हैं१. आहार। २. श्वास-उच्छ्वास । ३. वाणी। ४. चिंतन। ये रहते हैं, तब तक संसार चलता है । सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति का वियोग होना ही मोक्ष है। नैयायिक दर्शन के अनुसार जीवात्मा के दुःख और उसके कारणों से आत्यन्तिकी निवृत्ति मोक्ष है। शैवदर्शन (परमार्थसार) में कहा गया है मोक्षस्य नैव किन्चिद् धामास्ति, न चापि गमनमन्यत्र । अज्ञानग्रंथिभिदा स्वशक्त्यभिव्यक्तता मोक्षः ॥" -“मोक्ष न कोई धाम है और न कहीं गमन है ! जिसने अज्ञान-ग्रंथि को तोड़ डाला है उसके लिए अपनी शक्ति की अभिव्यक्ति ही मोक्ष है।" अद्वैत दर्शन में आत्मा की अविद्या से निवृत्ति, अनवच्छिन्न आनन्द की प्राप्ति एवं अशरीरी अवस्था को मोक्ष कहा गया है। __बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःख-निरोध ही निर्वाण (मोक्ष) है । सत्य की परिभाषा __प्रश्न है कि सत्य क्या है? जैन आगम कहते हैं....." वहीं सत्य है जो जिन (आप्त और वीतराग) ने कहा है।" वैदिक सिद्धान्त में भी यही लिखा है.---"आत्मा जैसे गृढ़ तत्त्व का क्षीणदो पयति (वीतराग) ही साक्षात्कार करते हैं।" उनकी वाणी अध्यात्मवादी के लिए प्रमाण है क्योंकि वीतराग अन्यथाभापी नहीं होते। जैसे कहा है..."अमन्य बोलने के मूल कारण नीन हैं.-राग. टेप और मोह।" जो व्यक्ति श्री गदोप है--दोपत्री से मुक्त हो चुका, वह फिर कभी असत्य नहीं बोलता। वीतराग अन्यथाभाषी नहीं होते—यह हमारे प्रतिपाद्य का दूसरा पहलू है। इससे पहले उन्हें पदार्थ समूह का यथार्थ ज्ञान होना आवश्यक है। यथार्थ ज्ञान
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy