SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन और संस्कृति -एक व्यक्ति एक समय जिस वस्तु से द्वेष करता है, वही दूसरे समय उसी में लीन हो जाता है, इसलिए इष्ट-अनिष्ट किसे माना जाए? व्यवहार की दृष्टि में भोग-विलास जीवन का मूल्य है। अध्यात्म की दृष्टि में काम-भोग, दुःख हैं। सौन्दर्य-असौन्दर्य, अच्छाई-बुराई, प्रियता-अप्रियता, उपादेयता-हेयता आदि के निर्णय में वस्तु की योग्यता निमित्त बनती है। वस्तु के शुभ-अशुभ परमाणु मन के परमाणुओं को प्रभावित करते हैं। जिस व्यक्ति के शारीरिक व्यक्ति उस वस्तु के प्रति आकृष्ट हो जाता है। दोनों का वैषम्य हो तो आकर्षक नहीं बनता। यह साम्य और वैषम्य देश, काल और परिस्थिति आदि पर निर्भर है। एक देश, काल और परिस्थिति में जिस व्यक्ति के लिए जो वस्तु हेय होती है, वही दूसरे देश, काल और परिस्थिति में उपादेय बन जाती है। यह व्यावहारिक दृष्टि है। - मूल्य के प्रत्येक निर्णय में आत्मा की संतुष्टि या असंतुष्टि अन्तर्निहित होती है। अशुद्ध दशा में आत्मा का संतोष या असंतोष भी अशुद्ध है इसलिए इस दशा में होने वाला मूल्यांकन नितांत बौद्धिक या नितांत व्यावहारिक होता है। वह शिवत्व के अनुकूल नहीं होता। शिवत्व के साधन तीन हैं—सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यह श्रद्धा, ज्ञान और आचार की त्रिवेणी ही शिवत्व के अनुकूल है। यह आत्मा की परिक्रमा किये चलती है दर्शन आत्मा का निश्चय है। ज्ञान आत्मा का बोध है। चारित्र आत्मा की स्थिति या रमण है। यह आध्यात्मिक रत्नत्रयी है। इसी के आधार पर जैन दर्शन कहता है-आस्रव हेय है और संवर उपादेय । “यही तत्त्व आद्य शंकराचार्य (बह्मसूत्र, शांकरभाष्य) में मिलता है "ब्रह्म की अवगति ही परमपुरुपार्थ है, क्योंकि ब्रह्म-ज्ञान से सम्पूर्ण संसार के कारणभूत अविद्या आदि अनर्थ का नशा होता है. इसलिए ब्रह्मजिज्ञासा करनी चाहिए।" 'बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःख हेय है और मार्ग उपादेय। वेदांत के अनुसार अविद्या हेय है और विद्या उपादेय। इसी प्रकार सभी दर्शन हेय और उपादेय की सूची लिये हुए चलते हैं। हेय और उपादेय की जो अनुभूति है, वह दर्शन है। अगम्य को गम्य बनाने वाली विचार-पद्धति भी दर्शन है। इस परिभाषा के अनुसार महापुरुषों
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy