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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......33 • जैसे वाण चमकीला एवं लक्ष्य वेधित करता है वैसे ही इस मुद्रा को दिखाने से स्थान, वातावरण आदि बाह्य मल से रहित होकर चमक उठते हैं और मनोचेतना इच्छित कार्यों को साध लेती है। • एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार यह मुद्रा कर्ण सम्बन्धी रोगों जैसेकान से कम सुनना, कान में आवाजें आना, कान में सूजन आना, कान का पर्दा फटना, मवाद आना आदि में मुख्य रूप से लाभकारी है। • वीर्य एवं अण्डकोश सम्बन्धित रोगों में लाभ पहुँचाती है। • इससे मुख सम्बन्धी रोगों का भी निवारण होता है। 2. कुम्भ मुद्रा सामान्यतया कुम्भ को कलश कहा जाता है। जल से भरा हुआ कलश मांगलिक एवं शकुनकारी माना गया है। शुभ प्रसंगों में प्राय: जलपूरित घट की स्थापना की जाती है। यहाँ कुम्भ मुद्रा से दो प्रकार के प्रयोजन सिद्ध होते हैं। प्रथम तो प्रतिष्ठा आदि के समय यह मुद्रा दिखाई जाए तो मंगलकारी वातावरण निर्मित होता है तथा दूसरा, इस मुद्रा की परिकल्पना अथवा प्रयोग से स्थानादि की शुद्धि हो जाती है। बाह्य जगत मनोजगत से निरन्तर प्रभावित होता रहता है। जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त इसी तथ्य को पृष्ट करता है। हमारा चेतन मन जब-जैसा विचार करता है बाह्य लोक में विद्यमान पुद्गल वर्गणाएँ तदरूप में परिणत हो आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाती है, इसे ही कर्मबन्ध कहते हैं। ___आचार्य जिनप्रभसूरि ने कुम्भ मुद्रा का उल्लेख शुद्धि के प्रसंग में किया है। विशिष्ट संशुद्धि के लिए कलश का नीर पवित्र माना गया है। अरिहंत परमात्मा एवं देवी-देवताओं का अभिषेक कलश के द्वारा ही किया जाता है। दूसरा तथ्य यह है कि बाह्य वस्तु की शुभाशुभता मनस केन्द्र पर भी उसी तरह का भाव पैदा करती है। कुम्भ शुभता और पवित्रता का द्योतक है। इस मुद्रा के कल्पना मात्र से शुभ वातावरण उपस्थित हो जाता है। योगविज्ञान के अनुसार श्वास को रोकना कुम्भक कहलाता है। जब प्राण वायु को रोका जाता है तो हृदय की मांसपेशियाँ सिकुड़ती हैं साथ ही ऐन्द्रिक मनोप्रवृत्तियाँ शान्त और सुस्थिर हो जाती हैं। इस मुद्रा में भी हथेली की
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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