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________________ 32... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा चूंकि मन शरीराश्रित है अत: मनोवृत्तियों की अस्थिरता से शरीर भी अस्थिर होता है, जबकि शुभ अनुष्ठान में मनोदैहिक प्रवृत्तियाँ स्थिर रहनी चाहिए। यह मुद्रा मन की शान्ति एवं शारीरिक स्थिरता के उद्देश्य से की जाती है। विधि ____ "दक्षिणांगुष्ठेन तर्जनीमध्यमे समाक्रम्य पुनर्मध्यमा मोक्षणेन नाराच मुद्रा।" दाहिने हाथ के अंगूठे से तर्जनी एवं मध्यमा अंगुलियों को आक्रमित करके पुन: मध्यमा अंगुली को पृथक करने पर नाराच मुद्रा बनती है। सुपरिणाम ___ इस मुद्रा के निम्नोक्त लाभ हैं . शारीरिक दृष्टि से यह शरीर में थायरॉइड ग्रन्थि पर रक्त संचार को नियमित करती है। शरीर के आधारभूत हार्मोन्स को संतुलित रखती है। आँख सम्बन्धी तकलीफों में राहत देती है। यह मुद्रा आकाश तत्त्व एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए रक्त संचरण, श्वसन तंत्र एवं हृदय सम्बन्धी समस्याओं का निवारण करती है। घुटने तथा जोड़ों में सन्धिवात से होने वाला दर्द ठीक होता है और कुपित वायु प्रशान्त होती है। इससे मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। • भावनात्मक दृष्टि से मानसिक परेशानियाँ दूर होती हैं, मन:स्थिति प्रसन्न रहती है और बुद्धि कुशाग्र बनती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से इस मुद्रा का प्रयोग चेतना की निर्णय शक्ति को बढ़ाता है। इस मुद्रा से विशुद्धि चक्र एवं आज्ञा चक्र प्रभावित होते हैं जिससे अहंकार, मायाचारी आदि में कमी होती है तथा मानवीय संवेदनाएँ अनुभूति के स्तर पर उभरने लगती हैं। एड्रीनल ग्रन्थि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा रोग की प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास करती है तथा अनावश्यक पदार्थों के निष्कासन में सहयोगी बनती है। विशेष • इस मुद्रा का प्रयोग स्थान आदि की शुद्धि के निमित्त किया जाता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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