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________________ 308... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा 75. वरद मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा कथित मुद्रा नं. 65 के समान है। यह मुद्रा वर प्रदान करने वाली है, अत: इसे मन्त्र साधना के अवसर पर अवश्य करना चाहिए। इस मुद्रा के प्रभाव से इष्ट देवी-देवताओं द्वारा वरदान की प्राप्ति होती है। इसका बीज मन्त्र 'घ' है। 76. चक्र मुद्रा चक्र मुद्रा के दो प्रकार हैं। प्रथम प्रकार के अनुसार बायें हाथ के तल पर दाहिने हाथ के मूल भाग को सन्निविष्ट करते हुए अंगुलियों को पृथक-पृथक प्रसारित करने पर चक्र मुद्रा बनती है। ___ इस मुद्रा का विस्तृत वर्णन विधिमार्गप्रपा के अन्तर्गत मुद्रा नं. 29 में किया गया है। द्वितीय परिभाषा के अनुसार दक्षिणाभिमुख बायें हाथ के तल पर उत्तराभिमुख दाहिने हाथ के तल को रखते हुए एवं अंगुलियों को पृथक करने पर चक्र मुद्रा बनती है। यह चक्र मुद्रा प्रतिष्ठा के अवसर पर दुष्टों का उच्चाटन करने और समस्त दोषों का निवारण करने के उद्देश्य से की जाती है। इसका बीज मन्त्र 'ङ' है। 77. नमस्कृति मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्रा नं. 56 के समान है। यह मुद्रा तत्त्व चिंतन के अधिकार में और क्रोधादि के उपशमनार्थ की जाती है। इसका बीज मन्त्र 'च' है। 78. मुक्ताशुक्ति मुद्रा यह मुद्रा विधिमार्गप्रपा वर्णित मुद्रा नं. 57 के तुल्य है। इस मुद्रा का प्रयोग पाप कर्मों का क्षय करने हेतु तथा प्रतिष्ठा अधिकार में होता है। इसका बीज मन्त्र 'घ' है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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