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________________ 150... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा इस मुद्रा में हाथ-पैरों की बीसों अंगुलियों पर, मूलाधार चक्र पर, कुण्डलिनी शक्ति पर, पिंडली की नसों पर दबाव रहता है। इससे उक्त सभी स्थान सक्रिय हो जाते हैं। ___ इस मुद्रा में हथेलियों एवं अंगुलियों के मध्य पोलापन न रहने से विशेष ऊर्जा का उत्पादन होता है। उस ऊर्जा के द्वारा निसृत तरंगे साधक की भावधारा को अत्यन्त प्रभावी बना देती हैं। साधक के द्वारा निष्ठा और संकल्प शक्ति से किये जा रहे गुणस्मरण आदि का इन तरंगों के साथ समन्वय होने से वे बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं, जो पलक झपकते ही सूक्ष्म तरंगों से ब्रह्माण्ड में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। ___ आज के इस युग में कम्प्यूटर, कैल्क्यु लेटर, रिमोट कन्ट्रोल के भिन्न-भिन्न बटनों को दबाकर सूक्ष्म एवं अगोचर तरंगों का प्रमाण प्रत्यक्ष देख रहे हैं। जिस प्रकार इलेक्ट्रोमेगनेटिक तरंगों की शक्ति से अन्तरिक्ष में भेजे गये रॉकेट को पृथ्वी पर से नियंत्रित कर सकते हैं, लेसर किरणों की शक्ति से लोहे की चद्दरों में छेद कर सकते हैं, आसिलेटर यंत्र की तरंगों से समुद्री चट्टानों का पता लगा सकते हैं। उसी प्रकार हथेली एवं अंगुलियों के जुड़ने से उत्सर्जित तरंगों द्वारा अपनी भावनाओं को इष्ट तक पहुँचा सकते हैं। इस मुद्रा के प्रभाव से उच्च भावनाएँ जागृत होती हैं। यह मुद्रा अग्नि तत्त्व सम्बन्धी रोगों का शमन कर इस तत्त्व को संतुलित रखती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा क्रोधादि कषाय भावों का शमन कर आपसी प्रेम एवं बन्धुत्व की भावना विकसित करती है। यह मुद्रा अनाहत चक्र, आनन्द केन्द्र एवं थायमस ग्रन्थि पर विशेष प्रभाव डाल कर कामवासनाओं को मन्द करती है। विशेष • एक्यूप्रेशर के अनुसार जीभ सम्बन्धी रोगोपशमन हेतु यह सर्वोत्तम मुद्रा है। • इससे अनावश्यक गर्मी का निरसन होता है। • लगातार लार गिरना, स्वर यन्त्र सम्बन्धी रोगों एवं बोलने सम्बन्धी रोगों में यह मुद्रा आराम देती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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