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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......115 इस मुद्रा के सम्यक प्रयोग से योगी पुरुषों की आत्माएँ ऊर्ध्वस्रोतस् बनती हैं। यह अन्तर्मन की कलुषिताओं को समाप्त करते हुए स्व-स्वरूप के प्रकाश से साधक को प्रकाशमान रखती है। सामान्यत: इस मुद्रा के माध्यम से बाह्य और आभ्यन्तर अशुद्धियों का निवारण किया जाता है। विधि . "हस्ताभ्यां संपुटं विधायांगुलीः पद्मवत् विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूललग्नांगुष्ठौ कारयेदिति ज्वलन मुद्रा।" दोनों हाथों का संपुट बनाकर अंगुलियों को कमल की पंखुड़ियों की भाँति विकसित करें। फिर मध्यमा अंगुलियों को परस्पर में संयोजित कर इन अंगुलियों के मूल भाग पर अंगूठों को स्पर्शित करने से ज्वलन मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से अग्नि और आकाश तत्त्व प्रभावित होते हैं। परिणामस्वरूप आकाश तत्त्व की कमी से होने वाले रोगों में आराम मिलता है तथा अग्नि तत्त्व में रासायनिक परिवर्तन होता है। यह मुद्रा शरीर की 73 हजार नस-नाड़ियों को पूर्ण नियन्त्रित करती है। इससे नाभि प्रदेश स्वस्थ रहता है। • बौद्धिक एवं भावनात्मक दृष्टि से यह मुद्रा दूषित विचारों के प्रतिरोध की क्षमता को बढ़ाती है, वैचारिक निर्मलता प्रदान करती है तथा चेतना को दोष मुक्त बनाती है। __इस मुद्रा से पिच्युटरी ग्लैण्ड की सक्रियता बढ़ जाती है और एड्रीनल या गोनाड्स पर उनका नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। विशेष • एक्यूप्रेशर चिकित्सज्ञों के अनुसार इस मुद्रा में जिन बिन्दुओं पर दबाव पड़ता हैं उससे सहानुभूति जनक स्नायुतन्त्र सक्रिय होते हैं। • चाइनीज एक्यूपंचर का एक विशिष्ट बिन्दु इस मुद्रा में गर्भित है जो वात दोष को निकालकर दृष्टि एवं श्रवण शक्ति को बढ़ाता है। • इस बिन्दु से सर्दी, इनफ्लूएंजा ज्वर, छींक आना, नाक से पानी बहना, बेचैनी, निम्न रक्त चाप आदि का निवारण होता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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