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________________ 568... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन अन्य प्रतिष्ठा कल्पकारों ने 291 हाथ परिमाण वस्त्र के सिद्धान्त को तद्रूप में तो मान्य नहीं किया है, परन्तु तदनुगामी आचार्यों के द्वारा किंचित प्रारम्भ करने से दिक्पाल पट्ट वस्त्र आच्छादित होने लगा। इसी प्रकार नवग्रह का पट्ट अस्तित्व में आने के पश्चात प्रत्येक ग्रह के वर्ण के समान वस्त्र चढ़ाना और नवग्रह पट्ट को वस्त्र से आच्छादित करना एक अविहित मार्ग के रूप में आज परम अनिवार्य बन गया है, परन्तु यह प्रणाली प्राचीन प्रतिष्ठा कल्पों से सर्वथा भिन्न है। इसी भाँति अष्टमंगल पट्ट के लिए भी वस्त्र आच्छादन की परम्परा शुरू हुई है। प्राचीन प्रतिष्ठाकल्पों में मिट्टी की वेदिका के लिए वस्त्र का उल्लेख नहीं है किन्तु पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में लिखे गये प्रतिष्ठा कल्पों में वेदिका के लिए 12-12 हाथ परिमाण वस्त्र का निर्देश किया गया है। प्राचीन काल में जलयात्रा के कलशों को नन्द्यावर्त्त पट्ट और जिन प्रतिमा के निकट स्थापित किया जाता था और कलशों के ऊपर जौ के पात्र रखते थे। आधुनिक विधिकारक उनके स्थान पर श्रीफल और रंगीन वस्त्र रखते हैं अर्थात श्रीफल को रंगीन वस्त्र से ढकते हैं। यह विधि आज भी प्रचलित हैं। इस प्रकार प्रतिष्ठा विधियों में वस्त्र सामग्री ने धीरे-धीरे एक महत्त्व का स्थान प्राप्त कर लिया है। आज नवग्रहों और दश दिक्पालों का पूजन करने हेतु अमुक वर्ण के रेशमी वस्त्र होने ही चाहिये, इस प्रकार निर्धारित रंग के अनेक वस्त्र खरीदे जाते हैं। उसके पश्चात ही प्रतिष्ठा अथवा शान्ति स्नात्र जैसी धार्मिक क्रियाएँ होती हैं। क्रयाणक- निर्वाण कलिका में आचार्य पादलिप्तसूरि ने क्रयाणकों का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु उसमें अष्टोत्तरशत मातृपुटिका का उल्लेख उपलब्ध होता है। यदि यह मातृपुटिका क्रयाणक के रूप में मानी जाती हो तो कहना चाहिए कि पादलिप्तसूरि के समय तक 108 क्रयाणकों की भिन्न-भिन्न पुड़िया ही परमात्मा के समक्ष रखना पर्याप्त माना जाता होगा। इसी कारण जिनबिम्ब के सम्मुख क्रयाणकों की 108 पुड़िया रखने का विधान किया गया है। परन्तु कालक्रम में 108 क्रयाणकों के स्थान पर 360 क्रयाणकों का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु यह परिवर्तन किस प्रतिष्ठा कल्पकार के द्वारा और कब किया गया? यह निश्चित रूप से कह पाना कठिन है।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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