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________________ प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... ...567 तदनन्तर विक्रम संवत् 1887 अथवा इससे परवर्ती काल में लिखित शान्तिस्नात्र-विधि में अष्टमंगल का पट्ट उपकरण के रूप में दृष्टिगोचर होता है। विक्रम संवत् 1639 एवं 1687 में लिखित अष्टोत्तरी स्नात्र विधि में अष्टमंगल पट्ट का नामोनिशान नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि अष्टमंगल पट्ट की अवधारणा अतिप्राचीन नहीं है। सम्भवत: वि.सं. 1687 के पश्चात और वि.सं. 1887 के पूर्व किसी काल में किसी विधि के साथ इसका प्रवेश हुआ है। विधि ग्रन्थों में तो अष्टमंगल के आलेखन का ही निर्देश है। अष्टमंगल की पूजा का विधान तो कहीं नहीं है तब वर्तमान में क्रियाकारक यह पूजन किस विधि-ग्रन्थ के आधार से करवाते हैं? उन ग्रन्थों के साक्षीपाठ प्रस्तुत कर स्पष्टता करना आधुनिक विधिकारकों का कर्तव्य बनता है। यदि साक्षीपाठ उपलब्ध नहीं होते हैं तो ऐसा समझना चाहिए कि किसी मनस्वी द्वारा प्रवर्तित अविहित प्रणाली है, जिसका बिना विचार किये अनुकरण किया जा रहा है। इस प्रकार मनो कल्पित विधानों का प्रवर्तन करने से कितने ही अनुष्ठानों की मौलिकता छिन्न-भिन्न होकर विपरीत स्वरूप में प्रवर्त्त रही है। वस्त्र- उपकरण के रूप में पट्टों की अभिवृद्धि हुई तो तत्सम्बन्धी सामग्री में अभिवृद्धि होना स्वाभाविक है। जिस समय मात्र एक नन्द्यावर्त पट्ट का पूजन किया जाता था उस समय पट्ट को आच्छादित करने के लिए एक श्वेत रेशमी वस्त्र ही आवश्यक होता था तथा जिन बिम्बों की अधिवासना और प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अखण्ड दो वस्त्र और मातृशाटिका इतनी ही वस्त्र सामग्री पर्याप्त थी। तदनन्तर दशदिक्पाल के आह्वान हेतु स्वतन्त्र पट्ट का उपयोग प्रारम्भ हुआ। उस काल में पट्ट के ऊपर दिशाओं के क्रम अनुसार दिक्पालों के आह्वान पूर्वक चंदन-केशर का तिलक करते हए उनकी स्थापना की जाती थी तथा सुगंधित द्रव्यों और सुवासित पुष्पों से पूजन किया जाता था, किन्तु वस्त्र पूजा या पट्ट के ऊपर वस्त्राच्छादन की कोई अपेक्षा प्रतीत नहीं हुई। नन्द्यावर्त पट्ट के लिए 24 हाथ परिमाण के अखण्ड रेशमी वस्त्र का उपयोग होता था, उसे आचारदिनकर के कर्ता आचार्य वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम 291 हाथ परिमाण का स्वीकार किया। इसका मुख्य कारण यह माना जा सकता है कि आचार दिनकर में वर्णित बृहत नन्द्यावर्त में कुल मिलाकर 291 अधिकारी देवी-देवतागण हैं, उनमें प्रत्येक के लिए एक-एक हाथ का वस्त्र गिना गया है। तदनन्तर इसी तरह कालक्रम के अनुसार वस्त्र सामग्री में अभिवृद्धि होती गई।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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