SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुभूति के बोल श्रमण परम्परा निवृत्ति एवं अध्यात्म मूलक परम्परा है । निवृत्ति मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए सर्वप्रथम असद्प्रवृत्ति से सद्प्रवृत्ति के मार्ग पर आना आवश्यक है। द्रव्य और भाव दोनों सापेक्ष चलते हैं तथा एक दूसरे की अभिवृद्धि में हेतुभूत बनते हैं। जिन धर्म की प्रत्येक क्रिया में द्रव्य शुद्धि एवं भाव शुद्धि दोनों को प्रमुखता दी गई है। वस्तुत: जैन संस्कृति का मूलोद्देश्य निवृत्ति ही है तथा उसी हेतु से कुछ प्रवृत्तियाँ की जाती है। प्रतिष्ठा भी एक ऐसा ही अनुष्ठान है । यद्यपि इसे देखने पर यही प्रतिभासित होता है कि यह एक आडम्बर युक्त बृहद् अनुष्ठान है, परन्तु इसके रहस्यों को जाना और समझा जाए तो यही आध्यात्मिक उन्नति का प्रथम सोपान हो सकता है। चौतीस अतिशयों से शोभित अरिहंत परमात्मा जब पैंतीस गुणों से युक्त वाणी द्वारा देशना देते हैं तब समस्त अमंगल दूर हो जाते हैं तथा सुख-शांति और समृद्धि लहलहाने लगती है। इसी प्रकार जिनालय में परमात्मा की प्रतिष्ठा चतुर्विध संघ में आनंद का प्रसरण करती है। इससे आधि-व्याधि-उपाधि का परिहार होता है तथा धन पिपासुओं की धन लालसा, भोगी जनों की भोगवृत्ति एवं अनैतिकता, तृष्णा आदि दुर्गुणों का निर्गमन होता है । प्रतिष्ठा का अभिप्राय जिनालय में जिनबिम्ब की स्थापना, आठ दिन का भव्यातिभव्य उत्सव, राजशाही भोजन व्यवस्था आदि करना नहीं है। इस अनुष्ठान के द्वारा बाह्योपचार से प्रतिमा की स्थापना होती है और भावों से हमारे हृदय मन्दिर में जिनेश्वर परमात्मा के साथ-साथ जिनवाणी एवं जिनाज्ञा की प्रतिष्ठा होती है। षोडशक प्रकरण में आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं - भवति च खलु प्रतिष्ठा निजभावस्यैव देवतोद्देशात् देवता के उद्देश्य से निज आत्मा में निज भावों की आगमोक्त रीति से अत्यंत श्रेष्ठ स्थापना करना यही प्रतिष्ठा है। इस प्रकार प्रत्येक आत्मा में परमात्म पद प्राप्त करने की जो शक्ति है उसे प्रकट करना अथवा अभिव्यक्त करने का प्रयास करना प्रतिष्ठा है।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy