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________________ अध्याय-6 जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि जिनालय विश्व संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। प्राचीन एवं अर्वाचीन मन्दिरों की बेजोड़ कलाकारी एवं उनके निर्माण में रखी गई जागृति ने आज पर्यन्त उन्हें जीवंत रखा है। यदि जैन श्रुत साहित्य का अवलोकन करे तो मन्दिर वास्तु विषयक भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उन्हीं प्रमाणभूत ग्रन्थों के आधार पर इस अध्याय में जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि का निरूपण किया जा रहा है। जिनालय का निर्माण करवाते समय कुछ सावधानियाँ आवश्यक है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस सम्बन्ध में पाँच द्वारों का उल्लेख किया है जो निम्न प्रकार है 1. भूमि शुद्धि - जहाँ जिनमन्दिर बनवाना हो वह भूमि निर्दोष होनी चाहिए। 2. दल शुद्धि - जिनमन्दिर निर्माण के साधन चूना, ईंट, काष्ठ आदि शुद्ध होने चाहिए। 3. भृतकानतिसन्धान - शिल्पिकारों का शोषण नहीं करना चाहिए । 4. स्वाशयवृद्धि - शुभ आशय में वृद्धि होते रहना चाहिए। 5. यतना - जिनमन्दिर बनवाते समय कम से कम दोष लगे, एतदर्थ विवेक रखना चाहिए। 1 शिल्परत्नाकर, प्रासाद मंडन, वास्तुसार प्रकरण, षोडशक प्रकरण, पंचाशक प्रकरण आदि प्रमुख ग्रन्थों के आधार पर उक्त पाँच द्वारों का विस्तृत विवेचन भी किया जा रहा है 1. भूमि शुद्धि द्वार जब उपासक के अन्तर्हृदय में जिनमन्दिर निर्माण की भावना उत्पन्न हो जाये तब वह सर्वप्रथम उपयुक्त भूमि का चयन करें। शुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर बनाया गया मन्दिर आराधकों के लिए दीर्घ काल तक टिका रहता है। साथ ही भावी पीढ़ियाँ भी परम्परा से सन्मार्ग का आश्रय लेकर आत्म कल्याण करती हैं।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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