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________________ जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप ...61 वायुमण्डल के प्रभाव से हमारे मन में अनायास प्रभु भक्ति, परमात्म अनुराग तथा उनके गुणों को ग्रहण करने की भावना उत्पन्न होती है। जिनालय की सर्वाधिक आवश्यकता का तीसरा कारण यह है कि जन सामान्य की आराधना के लिए यह स्थान उपयुक्त माना गया है। मन्दिर स्थापनकर्ता के अतिरिक्त हजारों वर्षों तक असंख्य लोग भगवान की निरन्तर पूजा-अर्चना करते हुए अपना आत्म कल्याण करते हैं। उन लोगों की विशुद्ध आराधना में मन्दिर निमित्त बनता है। जिनालय की आवश्यकता का एक मुख्य कारण यह भी कहा जा सकता है कि जिस स्थल पर चिरकाल तक पीढ़ी दर पीढ़ी उपासना होती हो उस जगह का कण-कण पूजनीय होने से वह मन्दिर तीर्थ रूप बन जाता है। तीर्थ अर्थात तारने वाला। मन्दिरों में निरन्तर पूजा-पाठ होते रहने से उसकी शक्ति अपरिमित हो जाती है और फिर वह एक सच्चे तीर्थ के रूप में प्राणी मात्र के लिए उपकारक बनता है। जिनमन्दिर की उपयोगिता को दर्शाते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि दर्शनात् दुरितध्वंसी, वन्दनात् वांछित प्रदः । ___ पूजनात्पूरकः श्रीणां, जिन साक्षात् कल्पद्रुमः ।। अर्थात प्रभु दर्शन से दुरितों (पाप कर्मों) का क्षय होता है, प्रभु को वन्दन करने से सर्व इच्छाएँ पूर्ण होती हैं तथा प्रभु पूजा से अपार समृद्धि की प्राप्ति होती है, क्योंकि परमात्मा साक्षात् कल्पवृक्ष के समान है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे जिनबिम्ब का दर्शन कर्म क्षय का हेतु है वैसे ही प्रतिमा का आधारभूत स्थल जिनमन्दिर भी दूर से ही दर्शकों के लिए पुण्य बन्ध का कारण है। . शास्त्रों में उल्लेख आता है कि पहली बार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति जिनेश्वर परमात्मा के पाद मूल में ही होती है। इस दृष्टि से माना जा सकता है कि जिनबिम्ब का आधार होने से जिनालय भी सम्यग्दर्शन प्राप्ति में सशक्त निमित्त बनता है। इस तरह विविध पहलुओं से जिनमन्दिर की उपादेयता सिद्ध होती है। पं. आशाधर रचित प्रतिष्ठा सारोद्धार के अनुसार धर्म साधना एवं आत्म कल्याण के लिए देव-गुरु-शास्त्र का सान्निध्य आवश्यक है। मंदिर के माध्यम से इन तीनों का सान्निध्य प्राप्त होता है अत: मंदिर का होना अनिवार्य है।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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