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________________ 58... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन " जिणबिंब पइट्ठाए, महुरा नयरीए मंगलाई तु । गेहेसु चच्चरेसु, छन्नवइ ग्गाम मज्झेसु । । ' अर्थः मथुरा नगरी में मंगल आदि चैत्यों में जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा - - पूजा करने से एवं गृह, चत्त्वर (चौराहा) आदि पर छियानवें ग्रामों में भी वैसा करने से सर्वत्र उपद्रव से शान्ति हो गयी । 3. नन्दीश्वर द्वीप, रूचक द्वीप, वक्षस्कार, वैताढ्य, मेरू आदि पर्वतों पर तथा असुर, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक आदि के भवन विमानों में ऋषभानन, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्धमान - इन चार जिनेश्वरों की रत्नमय शाश्वत प्रतिमाएँ हैं जो सभी कालों में एक समान रहती हैं, वे शाश्वत चैत्य कहे जाते हैं। 4-5. निश्राकृत और अनिश्राकृत चैत्य का स्वरूप कह चुके हैं। पूर्व वर्णित मंगल, भक्ति एवं शाश्वत चैत्यों का समावेश आयतन और विधि चैत्य- इन दो प्रकार के चैत्यों में हो जाता है । उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि सिद्धान्त प्रणीत एवं अहिंसा आदि श्रेष्ठ धर्म से युक्त मन्दिर ही वन्दनीय और पूजनीय हैं। जहाँ निराकार स्वरूपी प्रतिमाएँ स्थापित हों, गुण सम्पन्न गृहस्थ वर्ग के द्वारा जिनकी सार संभाल की जाती हों और मूर्ति के दर्शन मात्र से स्वयं के आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो, ऐसे स्थलों को यथार्थ चैत्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इससे यह भी सिद्ध होता है कि जहाँ व्यक्ति स्वार्थ पूर्ति के लिए मस्तक झुकाता हो अथवा सांसारिक कामनाओं की प्राप्ति हेतु हाथ जोड़ता हो ऐसे देवी-देवताओं के मन्दिर आत्मज्ञान की प्रतीति के कारण नहीं हो सकते। मूर्ति आदि की प्रतिष्ठा आवश्यक क्यों ? यह एक प्रासंगिक प्रश्न है कि जिनप्रतिमा आदि को पूज्यता प्रदान करने के लिए एवं परिकर आदि को स्थिर करने के लिए प्रतिष्ठा आदि अनुष्ठान करना आवश्यक क्यों? व्यक्ति की आन्तरिक श्रद्धा या शुभ भावना के आधार पर भी प्रतिमा पूजनीय बन सकती है। इसका सहेतुक उत्तर देते हुए आचार्य वर्धमानसूरि कहते हैं कि जैसे मुनि आचार्य पद या अन्य योग्य पद से, ब्राह्मण वेद संस्कार से, क्षत्रिय किसी महत्त्वपूर्ण पद पर अभिसिक्त होने से, वैश्य श्रेष्ठिपद से, शूद्र राज्य-सम्मान से
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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