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________________ अध्याय-1 जिनपूजा का सैद्धान्तिक स्वरूप एवं उसके प्रकार परमात्म भक्ति मानव जीवन की महानतम पूंजी है। जीवन को साधना से समृद्ध करने का यह अनुपम माध्यम है। मुक्ति फल प्राप्त करने हेतु कल्पवृक्ष के समान वांछापूरक है। भक्ति का एक प्रमुख घटक है- जिनपूजा। धर्मरूपी महल में प्रवेश करने के चार मुख्य द्वारों में प्रथम द्वार जिनपूजा बताया गया है। इसके द्वारा दुष्कर से दुष्कर कार्य भी सिद्ध हो सकते हैं। पूर्वाचार्यों ने 'पूज्यमाने जिनेश्वरे' पद के आधार पर जिनपूजा का फल बताते हुए कहा है कि परमात्मा की पूजा से समस्त उपसर्गों का क्षय हो जाता है, विघ्न रूपी वलय का छेदन हो जाता है तथा मन विषाद रहित होकर अद्भुत प्रसन्नता की अनुभूति करता है। मन्दिर दिव्य शक्तियों का संग्रहालय है तथा जिन प्रतिमा उन शक्तियों का Origin point अर्थात मुख्य ऊर्जा स्रोत है। इस तरह जिनपूजा दिव्य शक्तियों को जीवन में अनुप्राणित करने की विशिष्ट प्रक्रिया (Procedure) है। जीवन रूपी उपवन को जिनवाणी रूपी सौरभ से महकाने के लिए जिनपूजा के मूल स्वरूप को जानना, समझना एवं उसे जीवन में अनुप्राणित करना अत्यावश्यक है। पूजा शब्द का अर्थ विमर्श पूजा- यह एक प्रसिद्ध शब्द है। सामान्यतया इस शब्द का प्रयोग आराधना, सम्मान, यज्ञ, सत्कार आदि के रूप में होता है। 'पूजा' शब्द की उत्पत्ति 'पूज्' धातु में 'अग्र' विकिरण एवं 'ताप्' प्रत्यय के संयोग से हुई है। 'पूज' धातु पूजार्थक है और ताप् प्रत्यय स्त्रीलिंग के अर्थ में लगता है अत: पूजन करना पूजा है। संस्कृत कोश के अनुसार पूजा, सम्मान, आराधना, आदर, श्रद्धांजलि आदि करना पूजा है। प्राकृत कोश में पूजन, अर्चा, सेवा आदि शब्द पूजा के लिए प्रयुक्त हैं। पंचाशक प्रकरण के अनुसार पूज्यजनों का
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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