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________________ जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...275 मूक-बधिर लोग अपने भावों को समझाने के लिए सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार परमात्मा के समक्ष अपने भावों को प्रकट करने का श्रेष्ठ माध्यम है मुद्रा। इनके प्रयोग से एक विशिष्ट शक्ति का निर्माण होता है तथा मन में दृष्ट विचार प्रविष्ट नहीं होते। जिन दर्शन पूजन करते हुए विविध मुद्राओं के द्वारा विविध क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं। जैसे कि भावपूजा या चैत्यवंदन क्रिया के दौरान योगमुद्रा, जिनमुद्रा एवं मुक्ताशुक्ति मुद्रा का प्रयोग किया जाता है। वहीं अष्ट प्रकारी पूजा करते हुए विविध द्रव्यों को अर्पण करते हुए भिन्न-भिन्न मद्राओं का प्रयोग किया जाता है। इन मुद्राओं के प्रयोग से विनय, नम्रता, स्थिरता, भक्ति आदि सद्गुणों का जागरण होता है। शारीरिक रोगों का निवारण एवं ग्रंथिस्राव आदि का संतुलन होता है। चैतसिक एकाग्रता एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है। योगमुद्रा- यह मुद्रा विशेष रूप से विघ्नों का नाश करती है। अहंकार का दमन करती है। विनय एवं लघुता गुण का वर्धन करती है। शारीरिक तत्त्वों का संतुलन कर शारीरिक स्वस्थता में सहायक बनती है। मुक्ताशुक्ति मुद्रा- मुक्ताशुक्ति मुद्रा अर्थात मोती की सीप की भाँति हाथों की मुद्रा बनाना। इस मुद्रा के पीछे कई रहस्य अन्तर्भूत हैं। जिस प्रकार सीप में गिरा हुआ जल बिन्दु मोती के स्वरूप को प्राप्त करता है, उसी प्रकार प्रार्थना रूपी जलबिन्दु हृदयरूपी सीप में जब उतर जाए तब आत्मा को सर्वोच्च अवस्था रूप मोती प्राप्त हो जाता है। इन सूत्रों के द्वारा हृदय रूपी सीप में मन की प्रार्थनाओं को मोती का रूप दिया जाता है। ललाट पर यह मुद्रा स्थापित करने से आज्ञा चक्र प्रभावित होता है। इससे मानसिक शांति, बौद्धिक एकाग्रता, आत्मिक आनंद आदि की अनुभूति होती है। हृदय में समर्पण भाव जागृत होते हैं। जिनमुद्रा- जब तीव्र क्रोध आ रहा हो तब जिनमुद्रा या कायोत्सर्ग मुद्रा में कुछ समय तक स्थिर रहने से अंत:करण में जागृत क्रोध स्वयमेव ही शांत हो जाता है। पद्मासन मुद्रा में बैठने से वासना का दमन होता है। जीव को सर्वाधिक प्रिय अपनी काया होती है। जिनमुद्रा के द्वारा काया के प्रति रहे ममत्व का त्याग करने का प्रयास किया जाता है। प्रिय वस्तु का त्याग करने पर अधिक शीघ्रता से इच्छित फल की प्राप्ति होती है।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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