SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 266... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... के मत्स्य को देखकर जलचर जीवों के प्रतिबोधित होने के दृष्टांत शास्त्रों में वर्णित हैं। जब जिनप्रतिमा का आकार मात्र ही आत्मोत्थान में सहायक हो सकता है तो फिर साक्षात जिनप्रतिमा मनुष्य को आध्यात्मिक सोपान से मुक्ति शिखर तक क्यों नहीं पहुँचा सकती है। अत: जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर मानव को महा मानव बनाने एवं आध्यात्मिक उत्थान करने में परम सहायक तत्त्व है। जिनदर्शन निजदर्शन करने का National Highway पर्वत के शिखर पर पहुँचने के लिए सीढ़ी का आलंबन चाहिए। समुद्र पार करने के लिए जहाज या भुजाओं का सहारा चाहिए। पतित को पावन होने के लिए योग्य आलंबन रोग निवारण के लिए उचित औषधि चाहिए उसी तरह परमात्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिए जिन प्रतिमा का आधार चाहिए। आचार्य मानतुंगसूरि भक्तामर सूत्र में कहते हैं सम्यक प्रणम्य जिन पाद युगं युगादा। वालंबन भवजले पततां जनानाम् ।। जिनेश्वर देव के चरण युगल में योग्य रीति से भावपूर्वक किया गया प्रणाम पतित जनों के लिए भवजल प्राप्त होने का श्रेष्ठ आलंबन है। जिनप्रतिमा अर्थात निराकार परमात्मा का साकार रूप। साकार संसार में निराकार परमात्मा को प्राप्त करने हेतु साकार आलम्बन परम आवश्यक है। संसारी जीव ममत्व आदि के बंधन में बंधा हुआ है। इस बंधन से मुक्ति हेतु समत्व का आलम्बन चाहिए। जिनप्रतिमा, समत्व का प्रत्यक्ष एवं श्रेष्ठ उदाहरण है। परमात्मा का वंदन-पूजन करने से साधक अपने स्वरूप में तन्मय होकर परमात्म स्वरूप का साक्षात्कार कर सकता है। हमारे सामने जैसा लक्ष्य होता है, हम वैसे ही बनते हैं। चित्रकार के सामने अथवा कल्पना में जैसा चित्र होता है, वैसा ही चित्र वह चित्रित करता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए परम वीतरागी तीर्थंकर परमात्मा की साधना-उपासना परम आवश्यक है। इसी के द्वारा आत्मकल्याण के प्रशस्त पथ को प्राप्त किया जा सकता है। तीर्थंकर प्रतिमा का श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वंदन, दर्शन, पूजन आदि करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। उसके उत्तरोत्तर निर्मलता एवं पवित्रता में वृद्धि होती है तथा अन्त में क्षायिक सम्यक्त्व उपलब्ध कर पूर्णता को प्राप्त करता है।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy