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________________ 258... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... दर्शनं देव देवस्य दर्शनं पाप नाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सौपानं, दर्शनं मोक्ष साधनम् ।। देवाधिदेव परमात्मा के दर्शन करने से पापों का नाश होता है। जिन दर्शन स्वर्ग का सोपान और मोक्ष प्राप्ति का परम साधन है। जब तक आत्मा के द्वारा परम विशुद्ध सिद्ध अवस्था को प्राप्त न कर लिया जाए, तब तक जिनदर्शन शुभ कर्म बंध एवं स्वर्ग प्राप्ति का अनंतर कारण बनता है। वीतराग परमात्मा के दर्शन के पारम्परिक अंतिम फल के रूप में मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिनदर्शन करते समय जिनप्रतिमा के माध्यम से अरिहंत परमात्मा के साधनामय जीवन की गहराई में उतरते हुए उनके अनंत परमात्म गुणों में लयलीन होना चाहिए। परमात्मा की प्रशांत मुखमुद्रा एवं वीतराग स्वरूप का दर्शन कर मन को कषायों से उपशांत करने एवं सांसारिक पदार्थों के प्रति रागभाव कम करने का प्रयास करना चाहिए। महापुरुषों के सत्संग, समागम आदि से हमारे भीतर रहे हुए दुर्गुणों एवं कमियों का भान होता है। उनके सद्गुणों का चिंतन करने से गुणानुरागी वृत्ति का वर्धन होता है। प्रभु उपकारों का सुमिरन करने से कृतज्ञता एवं भक्ति भावों का अभ्युदय होता है। कुसंस्कारों का क्षय होता है। जिस प्रकार दर्पण में मुख देखने पर लगी गंदगी, दाग आदि का स्पष्ट बोध हो जाता हैं उसी तरह प्रतिमा के दर्शन से जीव को आत्मस्थिति का सही अहसास होता है । बालक को विद्यालय में भेजने से पूर्व उसे Playgroup, K.G. आदि प्रारंभिक कक्षाओं में प्रविष्ट करवाया जाता है ताकि भविष्य की पढ़ाई एवं परिस्थितियों के लिए योग्य बन सके। इसी प्रकार जब तक आत्मगुणों में पूर्णता न आ जाए तब तक जिनदर्शन प्रमाद अवस्था से मुक्त करने में सहायक बनता है। अतः स्व को जानने, जगाने एवं परमोच्च लक्ष्य तक पहुँचाने हेतु जिनदर्शन परमावश्यक है। परमात्म दर्शन बार-बार क्यों करना चाहिए? लौकिक जगत पर यदि दृष्टि डालें तो हम देखते हैं कि जौहरी लोग जो कि रत्नों के पारखी होते हैं, वे एक ही हीरे को कई बार कई दिनों तक देखदेखकर उसका मूल्य निश्चित करते हैं । जिस हीरे की कीमत पहले दिन वह पाँच हजार करते हैं उसी की कीमत दूसरे दिन पचास हजार करते हैं। इसी प्रकार
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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