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________________ जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... 255 रहने का अभ्यास होता है । शरीर हर परिस्थिति में रहने का आदी हो जाता है। प्रातः एवं मध्याह्नकालीन पूजा हेतु जाते हुए सूर्य का प्रकाश सीधे शरीर पर पड़ने से शरीर में प्राकृतिक ऊर्जा का संचार होता है। इस तरह त्रिकाल पूजा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक जगत का परिष्कार करती है। वर्तमान समय में त्रिकाल पूजा : एक समीक्षात्मक चिंतन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि त्रिकाल पूजा के सर्वाङ्गीण स्वरूप का चिंतन करें तो आज त्रिकाल पूजा करने वाले श्रावक नहीं के बराबर रह गए हैं। इसका मुख्य कारण है हमारी वर्तमान यांत्रिक गतिमय जीवनशैली, परमात्म भक्ति के प्रति बढ़ता उपेक्षा भाव तथा पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण। आजकल अधिकांश लोग प्रातः काल में ही अष्टप्रकारी पूजा सम्पन्न कर लेते हैं और कई लोग तो अष्टप्रकारी पूजा भी नहीं करते, मात्र चंदन पूजा को ही पूजा मानकर खुश होते हैं। कई नगरों में लोगों ने अपनी व्यस्तता के कारण जिनपूजा संबंधी नियमों एवं विधि-विधानों को विस्मृत करते हुए सूर्योदय से पूर्व ही प्रक्षाल करना प्रारंभ कर दिया है, जो कि सर्वथा अनुचित है। आजीविका आदि के कारण श्रावकों को त्रिकाल पूजा में कुछ अपवाद जरूर दिए गए हैं, परन्तु आज अपवाद मार्ग को लोगों ने राजमार्ग बना लिया है। कई लोग तर्क करते हैं कि वर्तमान की Fast प्रतिस्पर्धात्मक जीवनशैली में व्यक्ति के पास इतना समय नहीं है कि वह बार-बार अपने कार्य को छोड़कर जिन मंदिर जा सके। आजकल घर, मंदिर और Office आदि के बीच दूरियाँ इतनी बढ़ गई हैं कि सुबह सात - आठ बजे निकला हुआ व्यक्ति रात को आठ-नौ बजे घर पहुँचता है। ऐसे में उसे एक बार परमात्म दर्शन करना भी भारी लगता है तो वह त्रिकाल पूजा कैसे करे ? पूर्वकाल में लोगों की आवश्यकता एवं इच्छाओं का दायरा कम था। मानव संतोषी वृत्ति का था अतः जो मिलता था उसमें संतुष्ट रहता था। आज के जैसे नित नए आविष्कार भी नहीं होते थे एवं लोगों में पदार्थ भोग एवं संग्रह वृत्ति भी अधिक नहीं थी। लोगों में धर्म के प्रति जागृति थी अत: त्रिकाल पूजा करना उनके लिए संभव था । किन्तु आज माहौल इसके विपरीत है। जॉब और बिजनेस के लिए लोग अपनी मूल मातृभूमि ही नहीं वतन से भी दूर जा रहे हैं। ऐसे में उनमें धर्म संस्कारों का बीजारोपण कैसे संभव है ?
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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