SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 254... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... आचार्य हेमचंद्रसूरि ने दुखों को उतारने या हटाने की प्रक्रिया को आरती कहा है। ऐसे ही कई कारणों से शाम के समय आरती का विधान किया गया है। त्रिकाल पूजा के बहुपक्षीय लाभ पूर्वाचार्यों ने त्रिकालपूजा का विधान अनेक बिन्दुओं को ध्यान में रखकर किया है। जब कोई क्रिया पुन: पुन: की जाती है तो उसके संस्कार गाढ रूप से हमारे भीतर प्रस्थापित हो जाते हैं। प्रत्येक आत्मा का सर्वोच्च लक्ष्य है परमात्मदशा की प्राप्ति और जब हमारा लक्ष्य बार-बार हमारे सामने आता रहे तो उसकी अनुभूति, उसे प्राप्त करने का उत्साह प्रति समय बना रहता है। त्रिकाल पूजा के कारण बार-बार परमात्मा के दर्शन होते रहते हैं। इससे परमात्मा का स्वरूप पूजक के अन्त:स्थल में स्थिर हो जाता है। परमात्मा के त्रिकाल दर्शन करने से अनेक गुणा लाभ की प्राप्ति होती है। शास्त्रकार कहते हैं जिनस्य पूजनं हन्ति, प्रातः पाप निशा भवम् । आजन्म विहित मध्ये, सप्त जन्मकृतं निशि।। अर्थात जिनेश्वर परमात्मा का प्रात:काल में किया हुआ पूजन रात के पापों का नाश करता है। दोपहर के पूजन से इस भव के पापों का तथा संध्या के समय किए गए पूजन से सात जन्म के पापों का नाश होता है। मानसिक स्तर पर परमात्मा के दर्शन से चित्त उपशांत बनता है, आंतरिक आनंद की अनुभूति होती है, परमात्मा के अनंत गुणों का अवतरण हमारे भीतर होता है, उदारता, परदुखकातरता, स्वदोष दर्शन, लघुता, गुणानुराग, धर्मश्रद्धा आदि मानवीय गुणों का विकास होता है तथा निरभिमानता, तत्त्वदर्शिता, मातृभक्ति, कष्ट सहिष्णुता आदि परमात्म गुणों का भी अवतरण होता है। हृदय में रही कलुषिता-कषाय आदि का हरण होता है और मन विकार रहित, शुद्ध एवं निर्मल बनता है। शारीरिक स्तर पर भी इसका विशिष्ट प्रभाव देखा जाता है। त्रिकाल पूजा हेतु बार-बार मंदिर आने-जाने से शरीर स्वस्थ रहता है। जिनपूजा सम्बन्धी विविध क्रियाओं को विधिपूर्वक करने से शरीर के अंग-प्रत्यंग की कसरत हो जाती है। ध्यान आदि के द्वारा शारीरिक हलचल पर नियंत्रण प्राप्त होता है। घरों में A.C., Cooler या पंखों में रहने वाले लोगों को विपरीत परिस्थितियों में
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy