SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावे भावना भाविए ... 177 शारीरिक दृष्टि से चैत्यवंदन की क्रिया पूर्णतः वैज्ञानिक एवं प्रायोगिक प्रक्रिया है। इसमें प्रयुक्त विभिन्न मुद्राएँ हमारे शरीर को लचीला, फुर्तीला एवं स्वस्थ बनाती है। विभिन्न रोगों के निवारण, शारीरिक ग्रन्थि, विटामिन आदि के संतुलन में भी सहायक बनती है। जैसे- पंचांग प्रणिपात मुद्रा को नियमित रूप से करने पर पेट बेडौल नहीं होता तथा उदर विकार, जोड़ो के दर्द आदि में विशेष लाभ होता है। मोटापा नियंत्रित होता है। नाभि स्थान में स्थित रहस्यमयी शक्तियों का मस्तिष्क की तरफ ऊर्ध्वारोहण होता है। इससे मस्तिष्क की कार्यक्षमता विकसित होती है। भावनात्मक स्तर पर यह भावों का विशोधिकरण करती हैं। इससे क्रोध, ईर्ष्या, आवेग, उत्तेजना आदि वैभाविक गुणों का नियंत्रण होता है। सद्भावों की निरंतरता के कारण मानसिक तनाव, द्वेषपूर्ण स्थिति, कषाय भाव आदि शीघ्र उत्पन्न नहीं होते। आन्तरिक श्रद्धा, निष्ठा, एकाग्रता एवं संकल्प शक्ति के साथ किया गया परमात्मा का गुणगान, जाप, महिमा सुमिरन आदि भक्ति कर्त्ता के भीतर परमात्म गुणों का जागरण करता है तथा मन को शांत, निराकुल, स्थिर एवं एकाग्र बनाता है। जैनागमों के अनुसार भावपूर्वक चैत्यवंदन करने वाले जीव का संसार अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्त्तन से कुछ कम रहता है। 15 चैत्यवंदन करने वाले व्यक्ति को तात्कालिक फल के रूप में आत्मिक आनंद, कर्मक्षय एवं आत्मिक शान्ति की अनुभूति होती है तथा पारम्परिक फल के रूप में मोक्ष अथवा सद्गति की प्राप्ति होती है। 16 इस प्रकार चैत्यवंदन मात्र किसी विधि का पालन नहीं अपितु आत्म जागरण एवं उत्थान की विशिष्ट क्रिया है। भावपूजा का प्रारंभ इरियावहियं सूत्र से ही क्यों? जिनशासन में प्रत्येक क्रिया का प्रारंभ अथवा समापन लगभग इरियावहियं सूत्र द्वारा किया जाता है। इसी परम्परा का अनुपालन करते हुए जिनपूजा के दौरान द्रव्य पूजा का समापन एवं भावपूजा का प्रारंभ इरियावहियं सूत्र द्वारा किया जाता है। इस सूत्र के माध्यम से जाने-अनजाने में हुई गलतियों एवं दोषों की आलोचना की जाती है । "इरियावहियं" यह स्वीकृति सूत्र है । इसके द्वारा भूतकाल में हुई जीव हिंसा को स्वीकार किया जाता है। "तस्स उत्तरी" यह क्षमा
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy