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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...47 इसका खुलासा यह है कि प्रथम तो सभी को ‘आवश्यक सूत्र' पूर्णतया याद नहीं होता और अगर याद भी हो, तब भी साधारण अधिकारियों के लिये अकेले की अपेक्षा समुदाय में सम्मिलित होकर 'आवश्यक' करना लाभदायक माना गया है। जब कोई वरिष्ठ श्रावक अपने लिये सर्वथा उपयुक्त सम्पूर्ण 'वंदित्तु सूत्र' पढ़ता है, तब प्राथमिक और माध्यमिक- सभी अधिकारियों के लिए उपयोगी आलोचना पाठ उसमें आ ही जाते हैं। इन कारणों से ऐसी सामुदायिक प्रथा चल पड़ी है कि एक व्यक्ति सम्पूर्ण 'वंदित्तु सूत्र' बोलता है और शेष अधिकारी श्रावक का अनुकरण करके सब व्रतों के सम्बन्ध में अतिचारों का संशोधन कर लेते हैं। इस सामुदायिक प्रथा के रूढ़ हो जाने के कारण जब कोई प्राथमिक या माध्यमिक श्रावक अकेला प्रतिक्रमण करता है, तब भी वह ‘वंदित्तु सूत्र' को सम्पूर्ण ही पढ़ता है और ग्रहण नहीं किए हुए व्रतों के अतिचार का भी संशोधन करता है। इस प्रथा के रूढ़ हो जाने का एक कारण यह भी मालूम होता है कि सामान्य जन समुदाय में पर्याप्त विवेक नहीं होता। इसलिये वंदित्तुसूत्र में से अपने-अपने लिये उपयुक्त सूत्रांशों को चुन कर बोलना और शेष सूत्रांशों को छोड़ देना, यह काम सर्व साधारण के लिए कठिन ही नहीं, अपितु विषमता पैदा करने वाला भी है। इस कारण यह नियम रखा गया है कि सूत्र अखण्डित रूप से ही पढ़ना चाहिए।14 यही कारण है कि जब समुदाय को या किसी एक व्यक्ति को ‘पच्चक्खाण' कराया जाता है, तब ऐसा सूत्र पढ़ा जाता है कि जिसमें अनेक 'पच्चक्खाणों' का समावेश हो और सभी अधिकारी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार ‘पच्चक्खाण' कर सकें। इस दृष्टि से यह कहना होगा कि वंदित्तसूत्र अखण्डित रूप से पढ़ना न्याय एवं शास्त्र संगत है। जहाँ तक अतिचार संशोधन में विवेक रखने का प्रश्न है, उसमें विवेकी अधिकारी स्वतन्त्र है। इसमें प्रथा बाधक नहीं है। प्रतिक्रमण और शुद्धि प्रतिक्रमण अर्थात पाप का प्रायश्चित्त। प्रतिक्रमण सम्बन्धी एक-एक सूत्रपाठ आत्मा को कर्मरूपी बन्धन से मुक्त करता है। वस्तुतः प्रतिक्रमण करते हुए यह जीव तीन प्रकार की शुद्धि करता है- 1. आचारशुद्धि 2. पापशुद्धि और 3. आत्मशुद्धि।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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