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________________ 46... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना कहे गये हैं। भिन्न अभिग्रह वाले सभी श्रावक चौथे 'आवश्यक' के सिवाय शेष पाँच ‘आवश्यक' जिस रीति से करते हैं और उनमें जो जो सूत्र पढ़ते हैं, इस विषय में तो शङ्का को स्थान नहीं है, परन्तु वे चौथे ‘आवश्यक' को जिस प्रकार से करते हैं और उस समय जिन सूत्रों को पढ़ते हैं, उसके विषय में शङ्का अवश्य होती है। ___शंका यह है कि चौथा ‘आवश्यक' अतिचार संशोधन रूप है। ग्रहण किये हुए व्रत-नियमों में ही अतिचार लगते हैं और व्रत-नियम सबके समान नहीं होते। अतएव 'वंदित्तु सूत्र' के द्वारा सभी श्रावक- व्रती हो या अव्रती बारह व्रत आदि के अतिचारों का जो संशोधन करते हैं, वह न्याय संगत कैसे कहा जा सकता है? जिसने जो व्रत ग्रहण किया हो, उसको उसी व्रत के अतिचारों का संशोधन 'मिच्छामि दुक्कडं' द्वारा करना चाहिए। ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के सम्बन्ध में तो उनका संशोधन न करके व्रतों के गुणों का विचार करना चाहिए और गुण-भावना द्वारा उन व्रतों को स्वीकार करने के लिए आत्म सामर्थ्य पैदा करना चाहिए। ___ ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचारों का संशोधन यदि युक्त समझा जाए तो फिर श्रावक के लिए 'पंच महाव्रत' के अतिचारों का संशोधन भी युक्त मानना पड़ेगा। ग्रहण किये हुए या ग्रहण नहीं किए हुए व्रतों के सम्बन्ध में श्रद्धाविपर्यास हो जाने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि द्वारा उसका प्रतिक्रमण करना, यह तो सब अधिकारियों के लिए समान है। परन्तु यहाँ जो प्रश्न है, वह अतिचार-संशोधन रूप प्रतिक्रमण के सम्बन्ध का ही है। इस शङ्का का समाधान यह है कि अतिचार-संशोधन रूप 'प्रतिक्रमण' तो ग्रहण किये हुए व्रतों का ही करना युक्ति संगत है और तदनुसार ही सूत्रांश पढ़कर 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि देना चाहिए। ग्रहण नहीं किए हुए व्रतों के सम्बन्ध में श्रद्धा-विपर्यास का 'प्रतिक्रमण' भले ही किया जाए, पर अतिचार-संशोधन के लिए उस-उस सूत्रांश को पढ़कर 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि देने की अपेक्षा उन व्रतों के गुणों की भावना करना एवं गुणानुराग को पुष्ट करना ही युक्ति संगत है। ____ अब प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति है, तब व्रती-अव्रती, छोटे-बड़े सभी श्रावकों में एक ही 'वंदित्तुसूत्र' के द्वारा समान रूप से अतिचार का संशोधन करने की जो प्रथा प्रचलित है, वह कैसे चल पड़ी है?
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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