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________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...175 हैं। शास्त्रों में नंदीषेण नामक ब्राह्मण का कथानक आता है कि वह स्वयं के घर में और नगर में भी महादुर्भागी माना जाता था, किन्तु चारित्र ग्रहण करने के पश्चात क्षमा युक्त तप करने से देव एवं मनुष्यों के द्वारा वन्दन करने के योग्य हुआ अर्थात उनके द्वारा पूजा गया। एक जगह कहा गया है कि अथिरं पि थिरं वंकंपि, उज्जुअं दुल्लहं पि तह सुलहं । दुसझं पि सुसज्झं, तवेण संपज्जए वज्जं ।। जो वस्तु अस्थिर है वह तप के प्रभाव से स्थिर होती है, जो वस्तु वक्र है वह सरल होती है, जो वस्तु दुर्लभ है वह सुलभ होती है तथा जो दुःसाध्य है वह सुसाध्य होती है। चक्रवर्ती की छ: खण्ड जैसी कठिन साधना भी तप के द्वारा ही फलीभूत होती है। इसलिए तीर्थङ्करों ने एवं गीतार्थ-मुनियों ने जो तप की विधि कही है उस तप को विधिवत करने से मनुष्यों को मनवांछित सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। जैनाचार्यों ने तपस्या पर बल देते हुए इतना तक निर्दिष्ट किया है कि यदि दान देने की शक्ति न हो तो पुण्यवन्त मनुष्यों को स्वयं की शारीरिक शक्ति के अनुसार तपःकर्म अवश्य करना चाहिए। ____सामान्यतया तपश्चर्या के मुख्य दो प्रकार हैं - 1. बाह्य तप और 2. आभ्यन्तर तप। ये द्विविध तप छह-छह प्रकार के कहे गये हैं, ऐसे तप के बारह प्रकार होते हैं। षड्विध बाह्य तप के अवान्तर अनेक भेद हैं। तीर्थङ्करों एवं मुनिवरों ने तप के प्रत्येक भेद-प्रभेदों की क्रम पूर्वक विधि बतलायी है। उनमें से कुछ तप केवलज्ञानियों द्वारा कहे गये हैं, कुछ तप गीतार्थ मुनिवरों द्वारा बताये गये हैं तथा कुछ तप ऐहिक फल के इच्छुकों द्वारा आचरित हैं। इस प्रकार सर्व तपों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यहाँ तप विधियों का स्वरूप बतलाने के पूर्व मुख्य रूप से कहने योग्य यह है कि आचारदिनकर नामक ग्रन्थ में सभी तपों को तीन भागों में बांटा गया है। उन वर्गीकृत किञ्चिद् तपों के सम्बन्ध में प्रश्नचिह्न उपस्थित होते हैं जैसे कि आचार्य वर्धमानसूरि ने वर्ग तप, श्रेणी तप, घन तप, महाघन तप आदि को गीतार्थ भाषित कहा है जबकि उनका मूल उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त होता है। यह आगमसूत्र भगवान महावीर की साक्षात अन्तिम वाणी का संकलन रूप है और इसे अन्तिम उपदेश के रूप में मानते हैं तब उक्त वर्ग आदि तप तीर्थङ्कर प्रणीत होने चाहिए। आचार्य वर्धमानसूरि ने कनकावली, मुक्तावली, रत्नावली
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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