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________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...153 बौद्ध साहित्य में तप की मूल्यवत्ता को दर्शाने वाले कई सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जैसे- भगवान बुद्ध ने महामंगलसुत्त में कहा है कि तप, ब्रह्मचर्य, आर्य सत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार ये उत्तम मंगल हैं।83 कासिभारद्वाजसुत्त में भी तथागत ने कहा है कि मैं श्रद्धा का बीज बोता हूँ, उस पर तपश्चर्या की वृष्टि होती है तथा शरीर, वाणी से संयम रखता हूँ और आहार में परिमित रहकर सत्य द्वारा मैं स्वयं के दोषों का निरीक्षण करता हूँ।84 दिट्ठिवज्जसुत्त में बताया गया है कि किसी तप या व्रत के करने से कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं, अत: उसे अवश्य करना चाहिए।85 बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक बार भोजन करने के लिए कहा है तथा बौद्ध श्रमणों को रस में आसक्ति रखने का भी निषेध किया है। मज्झिमनिकाय, महासीहनादसुत्त में बुद्ध की कठिन तपश्चर्याओं का विस्तृत वर्णन है। उपर्युक्त वर्णन से एक तथ्य यह सामने आता है कि भगवान बुद्ध ने तप को कठोर देह दण्ड के रूप में स्वीकार नहीं किया तो जैन धर्म भी तप को केवल देहदण्ड नहीं मानता, वह चित्त शुद्धि, ध्यान आदि को भी तप मानता है। इस दृष्टि से विचार करें तो जैन धर्म का आभ्यन्तर तप बौद्ध धर्म से समानता रखता है। __व्यावहारिक दृष्टि से- कुछ लोग तप को देह दण्डन रूप क्रिया मानते हैं। इस देह दण्डन को यदि कुछ ढीले अर्थ में लिया जाये तो उसकी व्यावहारिक उपादेयता सिद्ध हो जाती है जैसे- व्यायाम के रूप में किया गया देह दण्डन (शारीरिक कष्ट) स्वास्थ्य रक्षा एवं शक्ति संचय का कारण होकर जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में भी लाभप्रद होता है, वैसे ही तपस्या के रूप में देह-दण्डन का अभ्यास करने वाला कष्ट-सहिष्णु शक्ति विकसित कर लेता है, जो वासनाओं के संघर्ष में ही नहीं, जीवन की सामान्य स्थितियों में भी सहायक होती है। एक उपवास का अभ्यासी व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति में भोजन नहीं कर पाता तो इतना व्याकुल नहीं होगा जितना कि अनभ्यस्त व्यक्ति। व्याकुलता शरीर और मन दोनों के लिए हानिकारक है। साथ ही व्यवहार जगत में सभ्यता व शिष्टाचार के प्रतिकूल आचरण है, किन्तु तप साधना से व्याकुलता पर विजय पायी जा सकती है। कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक जगत के लिए भी आवश्यक है।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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