SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 147 का प्रयोग जिस पर जितनी दूर तक संकल्प करके किया जाता है उतने ही क्षेत्र को वह प्रभावित करती है, जबकि बम तो फटने के बाद विध्वंस भी करता है। 24. शीतलेश्यालब्धि - यह तेजोलेश्या की प्रतिरोधी शक्ति है । जिस शक्ति से आत्मा अपने शीत-तेज पुद्गलों को तेजोलेश्या से जलते हुए आत्मा पर छोड़कर उसे भस्म होने से बचा सकता है, वह शीतलेश्या लब्धि कहलाती है। भगवान महावीर के समय में कूर्म गाँव में वैश्यायन नाम का तपस्वी अज्ञान तप करता था। स्नानादि न करने से उसके सिर में जुएँ पड़ गयीं, उसे देखकर गोशालक ने 'यूका शय्यातर' (जुंओं का जाला) कहकर उसका उपहास किया, जिसके कारण उस तपस्वी ने क्रुद्ध होकर गोशालक को भस्मीभूत करने हेतु उस पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया। उस समय भगवान महावीर ने गोशालक को सौम्यदृष्टि से निहारा, तत्क्षण तेजोलेश्या शान्त हो गयी। 25. आहारकलब्धि - किसी भी प्राणी की रक्षा, तीर्थङ्करों की ऋद्धि का दर्शन अथवा अपने संशयों का निराकरण करने के लिए जिस शक्ति से चौदह पूर्वधर मुनि आत्मप्रदेशों द्वारा स्फटिक के समान उज्ज्वल एक हाथ का पुतला बनाते हैं और उसे यथास्थान भेजकर पुनः शरीर में प्रविष्ट करवाते हैं, वह आहारकलब्धि कहलाती है। 26. वैक्रियलब्धि - जिस शक्ति से मनचाहे रूप बनाने की योग्यता प्राप्त होती है वह वैक्रियलब्धि कहलाती है। स्पष्टार्थ है कि वैक्रियलब्धि से शरीर के छोटे-बड़े, सुन्दर - विद्रूप हजारों रूप बनाये जा सकते हैं। यह लब्धि मनुष्य और तिर्यञ्च को आराधनाजन्य एवं देवता - नारकी को सहज प्राप्त होती है। 27. अक्षीणमहानसीलब्धि - जिस शक्ति के प्रभाव से छोटे से पात्र में लायी हुई भिक्षा लाखों व्यक्तियों को तृप्त कर देती है, फिर भी पात्र परिपूर्ण रहता है। वह पात्र तभी खाली होता है जब लब्धिधारी स्वयं उस भिक्षा का उपयोग करता है, उसे अक्षीणमहानसीलब्धि कहते हैं। गणधर गौतमस्वामी को यही लब्धि प्राप्त थी। इसी लब्धि के प्रभाव से वे सिर्फ एक पात्र में रही हुई भिक्षा द्वारा 1503 तापसों को मन इच्छित पारणा करवा सके 166 28. पुलाकलब्धि जिस शक्ति के उत्पन्न होने पर साधक शासन एवं संघ की सुरक्षा के लिए चक्रवर्ती की सेना से भी अकेला जूझ सकता है, वह -
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy