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________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...111 श्रमणों के वचन अधुनाऽपि भगवतीसूत्र में इस बात की साक्षी देते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ ने तप का उद्देश्य क्या बताया है? ___ भगवतीसूत्र के वर्णनानुसार एक बार तुंगिया नगरी के तत्त्वज्ञ श्रावकों ने प्रभु पार्श्वनाथ के स्थविर श्रमणों से तत्त्व चर्चा करते हुए पूछा - भन्ते! आप तप क्यों करते हैं? तप का क्या फल है? उत्तर में श्रमणों ने कहा - तप का फल है व्यवदान, कर्म निर्जरा। जो बात भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से कही है, वही बात पार्श्वसंतानीय श्रमणों ने श्रावकों से कही है। इतना ही नहीं समस्त तीर्थङ्करों ने, आचार्यों ने भी यही बात कही है। जैन संस्कृति का एक ही स्वर है कि तप केवल कर्म निर्जरा के लिए करना चाहिए। कामना युक्त तप क्यों नहीं? अब एक मार्मिक प्रश्न खड़ा होता है किसी भी भौतिक अभिलाषा, या यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि के लिए तप क्यों नहीं किया जाय? इस निषेध का मतलब क्या है? पूज्य मधुकरमुनि ने इसका जवाब देते हुए कहा है कि जैन धर्म सुखवादी धर्म नहीं है, मुक्तिवादी धर्म है। सुखवादी तो सिर्फ संसार के सुखों में उलझा रहता है लेकिन मुक्तिवादी धर्म कहता है कि सुख और दुःख दोनों ही बन्धन हैं। आदमी सुख प्राप्ति का प्रयत्न कर उसे प्राप्त भी कर लेता है; किन्तु उस सुख-भोग के साथ नया पाप कर्म भी बंधता जाता है। इससे शुभ कर्म क्षीण होकर अशुभ कर्म का उदय प्रारम्भ हो जाता है। थोड़े से सुख के बाद भयंकर दुःख प्राप्त होते हैं। गीता में बताया है- जो सकाम कर्म करते हैं, पुण्य की अभिलाषा या स्वर्ग की कामना से तप करते हैं, वे मरकर स्वर्ग को प्राप्त भी कर लेते हैं; किन्तु वहाँ अप्सराओं के मोह-माया में फंसकर अपने समस्त पुण्यों का क्षय कर डालते हैं और फिर पुण्यहीन होकर पुनः दुःखों के महागर्त में गिर जाते हैं। संसार के जितने भी सुख हैं, वे सब दुःख की खान हैं। इसलिए जो भी कर्म करे, वह अशुभ कर्म को नष्ट करने के लिए करना चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि भौतिक लाभ के लिए तप करने वाले का उद्देश्य बहुत सीमित होता है, वह छोटे से उद्देश्य के लिए बहुत बड़ा कष्ट उठाता है जबकि कर्म निर्जरा के लिए किया गया तप असीम अचिन्तनीय फल होता है। ___ एक आदमी अमृत का उपयोग कीचड़ से सने पाँव धोने के लिए करता है और एक मरते हुए प्राणी को जीवनदान देने के लिए। जिस तरह अमृत के
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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