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________________ भिक्षाचर्या की उपयोगिता एवं उसके रहस्य ...33 इस प्रकार ग्लान आदि पराश्रित मुनियों की परिचर्या एवं कर्म निर्जरा की दृष्टि से भोजन मण्डली को अनिवार्य माना गया है। श्रमण का आहार गुप्त क्यों? ___ जैन मुनि के लिए गुप्त आहार करने का निर्देश है। उसे एकान्त में इस तरह बैठकर आहार करना चाहिए कि किसी गृहस्थ की उन पर दृष्टि न पड़े। आचार्य हरिभद्रसूरि ने गुप्त भोजन का रहस्य उद्घाटित करते हुए कहा है कि यदि साधु अप्रच्छन्न (खुले) रूप से भोजन करें तो उस भोजन को देखकर क्षुधा पीड़ित दीन आदि याचक उनसे आहार की याचना कर सकते हैं। कदाचित दया भाव आने से आहार का कुछ भाग दे दिया जाये तो साध को निश्चित रूप से पुण्य बंध होता है किन्तु वह पुण्य बंध साधु के लिए इष्ट नहीं है। क्योंकि पुण्य बंध सुवर्ण बेड़ी के समान है और संसार चक्र का हेतु है। पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति होती है अत: निर्जरा के लिए प्रयत्नशील साधुओं के लिए पुण्य बंध हितकारी नहीं है। - यदि याचकों के द्वारा मांगे जाने पर भी भिक्षा न दी जाये तो याचक क्षुद्र वृत्ति वाले होने से उनके मन में अप्रसन्नता प्रकट होती है, शासन के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है और फलत: शासन निन्दा आदि दुष्प्रवृत्तियों के कारण संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक तरह के कष्टों को प्राप्त करते हैं। इसी के साथ नरक, तिर्यंच आदि अशुभ गतियों में उत्पन्न होने की परम्परा का विस्तार कर लेते हैं। इस तरह प्रमादवश प्रच्छन्न भोजी साधु शासन द्वेष में निमित्त भूत एवं शास्त्र मर्यादा का अतिक्रमण करने के कारण पाप बन्ध का भागी होता है। इसलिए निर्ग्रन्थ मुनियों को गुप्त भोजन ही करना चाहिए। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'प्रच्छन्न भिक्षा' नामक एक अष्टक भी रचा है।15 आहार के लिए मध्याह्नकाल श्रेष्ठ क्यों बताया गया? श्रमण की आहारचर्या के लिए मध्याह्न काल उत्कृष्ट माना गया है। इसका मुख्य हेतु जीव यतना एवं निर्दोष आहार की प्राप्ति करना है। पूर्व काल में अधिकांश लोग दिन के बारह बजे तक या उसके कुछ समय बाद तक भोजन कर लिया करते थे शेष जो कुछ बचता, वही मुनि के लिए ग्राह्य होता था। दूसरा उस समय तक सूर्य का पूर्ण प्रकाश फैल जाता है, जिससे आहार की शुद्धताअशुद्धता का भी निरीक्षण करना संभव होता है। भिक्षाटन के लिए मध्याह्न काल
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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