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________________ भिक्षाचर्या की उपयोगिता एवं उसके रहस्य ...29 अतः आर्थिक प्रबंधन भी इससे संभव है । इस प्रकार शुद्ध एवं सात्विक आहार की मूल्यवत्ता अनेक दृष्टियों से सिद्ध होती है। जैन मुनि के लिए निर्दोष आहार का विधान क्यों ? जैन मुनि के लिए भिक्षाटन के द्वारा निर्दोष आहार प्राप्त करने का विधान है। निर्दोष आहार से यहाँ अभिप्राय मुनि के लिए नहीं बनाए गए आहार आदि से है। यदि वर्तमान संदर्भ में इस पर चिन्तन किया जाए तो कई समस्याएँ उपस्थित हो चुकी हैं, जैसे कि एकल परिवार की संस्कृति, बढ़ती महंगाई एवं नौकरी पेशा जिन्दगी में मुनि को अधिकतर घर बंद मिलते हैं। अपनी सुविधानुसार गरम-गरम खाना बनाने एवं खाने से अधिक भोजन बनाने की वृत्ति भी लोगों में नहींवत रह गई है। आज बढ़ती महंगाई में जहाँ दाल-आटे के भाव आसमान को छू रहे हैं ऐसी स्थिति में कोई भी अधिक खाना बनाकर उसे बिगाड़ना नहीं चाहता। पूर्व कालीन संयुक्त परिवारों में आहार एक साथ बना दिया जाता था तथा बच्चों और अतिथि आदि की अपेक्षा से कुछ अधिक भी बनाया जाता था, परन्तु वर्तमान में यह सब प्रायः दुर्लभ है। ऐसी स्थिति में मुनि निर्दोष भिक्षा कैसे प्राप्त करे यह सबसे बड़ा प्रश्न है ? जहाँ पर जैन परिवार अधिक संख्या में रहते हैं और लोगों में धार्मिक संस्कार एवं साधु-साध्वियों के विषय में जानकारी होती है वहाँ यह समस्या इतनी उग्र नहीं है। इन परिस्थितियों में भी यदि इसकी आवश्कता पर विचार किया जाए तो मुनि के निर्दोष भिक्षा आचार से लोगों में उस जीवन के प्रति अभाव नहीं बढ़ता। वर्तमान महंगाई के युग में भी मुनि समाज पर भार रूप नहीं बनते। मुनि तो हर जगह से थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है और इतना आहार उसे घरों से प्राप्त हो सकता है। निर्दोष आहार ग्रहण करने से मुनि के मन में भी किसी के प्रति दुर्भाव उत्पन्न नहीं होते, न ही अपेक्षा वृत्ति जागृत होती है। इस प्रकार वर्तमान में जहाँ साधु-संतों के प्रति उपेक्षा भाव एवं मिथ्या धारणाएँ बढ़ रही हैं वहाँ मुनि का निर्दोष आहार ग्रहण करना उनके प्रति आस्था भावों में वृद्धि करता है। निर्दोष आहार की मूल्यवत्ता प्रबंधन क्षेत्र में भी देखी जाती है जैसे कि निर्दोष आहारार्थी मुनि अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता है जिससे वह जहाँ से आहार लेता है उन्हें कोई हानि नहीं होती और दूसरी बात वह कभी
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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