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________________ 16... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन है अथवा जैसे- बैलगाड़ी आदि वाहनों को सुगमता से चलाने के लिए उसके पहिए की धुरी पर ओगन (तेलादि स्निग्ध पदार्थ) लगाया जाता है वैसे ही शरीर को संयम रूपी धर्म का साधन बनाए रखने के प्रयोजन से आहार ग्रहण करना अक्षमृक्ष है। 3. श्वभ्रपूरण- जैसे गड्ढे को किसी भी कचरे से भरा जा सकता है वैसे ही पेट रूपी गड्ढे को सरस या नीरस जैसा भी आहार मिले, उससे भरना श्वभ्रपूरण है। 4. गोचरी - जिस तरह गाय की दृष्टि अलंकरणों से सज्जित युवती पर न होकर उसके द्वारा लायी गई घास पर रहती है उसी तरह मुनि को भी दाता या दात्री के वेश-भूषा का निरीक्षण न करते हुए उसके द्वारा दिए जाने वाले रुक्ष स्निग्ध आदि निर्दोष भोजन पर दृष्टि को केन्द्रित रखना गोचरी वृत्ति है। - 5. भ्रामरी - जैसे भौंरा फूलों को कष्ट न पहुँचाते हुए रसपान करता है वैसे ही गृहस्थ को कष्ट न देते हुए एवं उन पर भार रूप न बनते हुए परिमित आहार ग्रहण करना भ्रामरी वृत्ति है | 33 आहार सेवन के अन्य प्रकार स्थानांग सूत्र में उपहत यानी खाने के लिए लाया गया आहार तीन प्रकार का बताया है 1. शुद्धोपहृत - खाने के लिए साथ में लाया हुआ लेप रहित भोजन यानी अल्पलेपा नाम की चौथी पिण्डैषणा । 2. फलिकोपहृत - खाने के लिए थाली में परोसा हुआ भोजन यानी अवगृहीता नाम की पाँचवीं पिण्डैषणा । 3. संसृष्टोपहृत - खाने के लिए हाथ में उठाया हुआ भोजन | 34 अवगृहीता (परोसने के लिए रसोईघर या कोठार से निकाला हुआ) आहार तीन प्रकार का माना गया है - 1. परोसने के लिए उठाया गया 2. परोसा गया 3. पकाने योग्य पात्र में डाला गया। 35 यहाँ अपहृत, अवगृहीत आदि प्रकार अभिग्रहधारी मुनियों की अपेक्षा से निर्दिष्ट हैं क्योंकि कोई अभिग्रहधारी उठाया हुआ लेता है तो कोई परोसा हुआ और कोई पुनः पाक पात्र में डाला हुआ लेता है। भिक्षा मुनि जीवन का आवश्यक अंग है। मुनि अपना जीवन निर्वाह इसी के माध्यम से करते हैं। यह विधि मुनि को व्यवहारिक दायित्वों से निवृत्त रखती
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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