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________________ आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ... 155 अध:कर्म से निर्मित आहार ग्रहण करते हैं तो उनके सभी योग अनुष्ठान और उत्तरगुण निरर्थक ही है। जिस प्रकार रौद्र सर्प कांचली को छोड़कर भी विष का त्याग नहीं करता है उसी प्रकार चारित्रधारी प्रमत्त मुनि भोजन आदि के लोभ से पंचसूना अर्थात खंडनी, मूसल, चक्की, चूल्हा, पानी भरना और बुहारी का त्याग नहीं करता है। यद्यपि चरित्रवान मुनि को इनसे सदैव भयभीत रहना चाहिए, क्योंकि इनसे जीव समूह का घात होता है | 262 जो मुनि षट्का के जीवों का घात करके अधःकर्म निर्मित आहार लेता है वह अज्ञानी, लोभी एवं रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ श्रमण, श्रमण नहीं रह जाता, बल्कि श्रावक हो जाता है। जो साधु जहाँ जैसा भी मिले वहाँ वैसा ही आहार आदि ग्रहण कर लेता है वह मुनि गुणों से रहित होकर संसार वृद्धि करता है। उसके इहलोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार चारित्रहीन मुनि का श्रुतज्ञान भी निरर्थक हो जाता है। जैसे नेत्रहीन मनुष्य के लिए दीपक कुछ भी नहीं कर सकता वैसे ही चारित्र से हीन मुनि के लिए ज्ञान विशेष कुछ भी नहीं कर सकता है | 263 सिद्धान्ततः परिणाम के निमित्त से शुद्धि होती है । आगम में कहा गया है कि जो साधु अध:कर्म के भाव से परिणत है वह प्रासुक आहार ग्रहण करने पर भी बन्धक कहा जाता है और शुद्ध आहार की गवेषणा करने वाला मुनि अध:कर्म से युक्त आहार लेने पर भी शुद्ध है किन्तु निर्दोष आहार को सदोष समझकर ग्रहण करने वाला बन्धक ही कहलाता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से शुद्ध परिणतिवान होकर भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। गोचरचर्या सम्बन्धी आलोचना में लगने वाले दोष मुनि जीवन की आचार मर्यादा के अनुसार भिक्षाटन में लगे दोषों को गुरु के समक्ष कहना चाहिए। ओघनियुक्ति के मतानुसार आलोचना करते समय निम्न षड्विध दोषों की संभावनाएँ रहती है किन्तु भिक्षाचारी मुनि को निम्न दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए | 2 264 1. नृत्य - हाथ, पैर, मस्तक आदि अंगों को नचाते हुए आलोचना करना। 2. बल- शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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