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________________ 154... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन मूलाचार में आहार शुद्धि पर बल देते हुए यहाँ तक कहा गया है कि परिमित और अध:कर्म आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार प्रतिदिन ग्रहण करना भी श्रेष्ठ है किन्तु बेला, तेला, चार, पाँच, पन्द्रह या एक महीना आदि के उपवास करके पारणे के दिन सावध व्यापार से युक्त, महान आरम्भ से निष्पन्न और दाता को संक्लेश उत्पन्न करने वाला आहार लेना उचित नहीं है। यदि सदोष पारणा करके महान तप किया जाता है तो वह तप श्रेष्ठ नहीं कहलाता है क्योंकि उसमें हिंसा होती है।259 आचार्य वट्टकेर पूर्व विषय का प्रतिपादन करते हुए यह भी दर्शाते हैं कि जो मुनि आहार, उपकरण, वसति आदि की सम्यक गवेषणा किये बिना ही उन्हें ग्रहण करते हैं वे मुनित्व धर्म से च्युत हो जाते हैं।260 इसी क्रम में आगे कहते हैं कि चिर दीक्षित मुनि यदि आहार आदि की शुद्धि के बिना तप करता है तो उसके चारित्र की शुद्धि नहीं होती है। अत: उसकी आवश्यक क्रियाएँ भी शुद्ध नहीं होती। वस्तुत: अहिंसा आदि मूलगुणों का घात करके आतापना आदि बाह्य योगों को धारण करने से चारित्र शुद्धि संभव नहीं है। तात्पर्य है कि मूलगुण रहित सभी बाह्य योग आध्यात्मिक उत्थान में हेतुभूत नहीं बन सकते यानी केवल उत्तर गुणों के परिपालन से कर्म निर्जरा नहीं होती है।261 मूलाचार में सदोष भिक्षा के विपरीत परिणाम बताते हुए कहा गया है कि जो अध:कर्म आदि के द्वारा अनेक त्रस-स्थावर जीवों का उपघात करके अपने शारीरिक बल के लिए सावद्य आहार ग्रहण करते हैं वे साधु उस तरह सुख की इच्छा करते हैं जिससे नरक आदि दुर्गतियों में परिभ्रमण करना पड़े, इससे उनका मोक्ष नहीं होता है। __ सिंह या व्याघ्र द्वारा दो, तीन अथवा चार बार भी किसी प्राणी का भक्षण कर लिया जाये तो वह हिंसक या पापी कहलाता है तब फिर जो अध:कर्म के द्वारा असंख्य जीव समूह को नष्ट करके आहार लेते हैं वे नीच-अधम कैसे नहीं हैं? सामान्यत: आहार आदि पकाने में प्रत्यक्ष रूप से तो अन्य जीवों का हनन होता है किन्तु तत्वत: अपनी आत्मा का ही वध होता है। अन्य जीवों को कष्ट पहुँचाना फलतः स्वयं की आत्मा को दुर्गति के द्वार पर उपस्थित करना है। जो मुनि कायोत्सर्ग करते है, मौन धारण करते हैं, वीरासन आदि अनेक उपायों से कायक्लेश करते हैं, उपवास, बेला आदि तप करते हैं किन्तु
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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