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________________ 136... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन • थोड़े शुष्क पर थोड़ा शुष्क। • थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क । • बहु शुष्क पर थोड़ा शुष्क। • बहु शुष्क पर बहु शुष्क । है, जहाँ थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क तथा बहु शुष्क पर बहु शुष्क संहृत होता वहाँ साधु को आहार लेना कल्पता है। शुष्क पर आर्द्र, आर्द्र पर शुष्क या आर्द्र पर आर्द्र- इन तीन भंगों में आहार ग्रहण करना कल्प्य नहीं होता है। यदि ग्राह्य वस्तु कम भार वाली हो और उस पर कोई हल्की वस्तु रखी हो तो उसे अन्यत्र रखकर आहार आदि लिया जा सकता है। परिणाम - भारी या बड़े पात्र को उठाने या नीचे रखने में दाता को कष्ट होता है। इससे लोक निंदा भी संभव है कि यह रस लोलुपी साधु दूसरों की सुविधा - असुविधा का भी ध्यान नहीं रखता। यदि दान देते समय अंग खंडित या शरीर जल जाए तो दाता या उसके परिजनों के मन में अप्रीति उत्पन्न हो सकती है जिससे अन्य द्रव्यों का व्यवच्छेद हो जाता है तथा भारी पात्र से वस्तु बाहर निकलने पर षट्काय वध की संभावना रहती है। संहरण आदि प्रत्येक द्वार में भंगों के आधार पर 432 भंग इस प्रकार बनते हैं- सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण इस तरह स्वकाय - परकाय की अपेक्षा 36 भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र की अपेक्षा प्रत्येक की तीन चतुर्भंगी होने से 12 भेद होते हैं। 12 x 36 से गुणा करने पर 432 भेद होते हैं। 217 सचित्त संहृत आदि दोष भी दो-दो प्रकार का कहा गया है - अनन्तर और परम्पर। इसका स्पष्टीकरण निम्न है - • सचित्त पृथ्वीकाय पर रखा गया आहार लेना, पृथ्वीकाय अनन्तर संहृत दोष है। • सचित्त पृथ्वीकाय पर रखे हुए पात्र में डाला हुआ आहार लेना, पृथ्वीकाय परंपर संहृत दोष है। • बर्फ आदि से युक्त वस्तु लेना, अप्काय अनन्तर संहत दोष है। • सचित्त जल आदि से संस्पर्शित पात्र में डाली गई वस्तु लेना, अप्काय परंपर संहृत दोष है। • चूल्हे पर तुरंत रोका गया पापड़ लेना, तेउकाय अनन्तर संहृत है। • गर्म किये हुए बर्तन में डाली गई भिक्षा लेना, तेउकाय परंपर संहृत दोष है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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