SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन से न देखा जा सके वैसे नीचे द्वार वाले या अंधकार युक्त स्थान से मुनि भिक्षा ग्रहण न करें।81 8. क्रीतकृत दोष साधु के लिए खरीदकर भिक्षा देना क्रीत दोष है।82 आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो साधु के लिए खरीदा जाए, वह क्रीत है तथा खरीदी हुई वस्तु से बना हुआ क्रीतकृत कहलाता है।83 आचारचूला, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती, दशवैकालिक आदि आगमों में जहाँ भी औद्देशिक का वर्णन किया गया है, वहाँ क्रीतकृत और अभिहत आदि दोषों का भी उल्लेख मिलता है।84 बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार क्रीतकृत दोष दो प्रकार का होता है- निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट। जहाँ गृहस्थ इस भाव पूर्वक खरीदता है कि अमुक वस्त्र, पात्र आदि मेरे लिए होंगे तथा अमुक साधु के लिए, वहाँ निर्दिष्ट क्रीत होता है। इसके विपरीत सहज रूप से खरीदा हुआ अनिर्दिष्ट क्रीत कहलाता है। अनिर्दिष्ट क्रीत में गृहस्थ के द्वारा उपयोग कर लेने के बाद शेष वस्त्र आदि साधु के लिए कल्प्य होते हैं लेकिन निर्दिष्ट क्रीत साधु के लिए अग्राह्य होता है। निर्दिष्ट क्रीत में गृहस्थ यदि साधु को यह कहे कि आप मेरे निमित्त खरीदे गए वस्त्रों का ग्रहण करें, मैं आपके निमित्त खरीदे गए वस्त्रों का उपयोग करूंगा, ऐसा कहने पर साधु उस गृहस्थ के लिए खरीदे गए वस्त्रों को ले सकता है।85 पिण्डनियुक्ति में क्रीतकृत दोष चार प्रकार का बतलाया गया है__ 1. आत्मद्रव्य क्रीत 2. आत्मभाव क्रीत 3. परद्रव्य क्रीत 4. परभाव क्रीत। (i) आत्मद्रव्य क्रीत - सौभाग्य के लिए तीर्थों का प्रसाद, गंध द्रव्य, रूपपरावर्तिनी गुटिका, चंदन अथवा वस्त्र खंड आदि देकर आहार प्राप्त करना, आत्मद्रव्य क्रीत दोष है। यहाँ कार्य में कारण का उपचार करके आत्मद्रव्य क्रीत को ग्रहण किया गया है। दोष- आत्मद्रव्य क्रीत सम्बन्धी आहार लेने से निम्न दोष संभव है- यदि निर्माल्य (देवद्रव्य) आदि देने पर संयोगवश कोई बीमार हो जाए तो वह व्यक्ति जिनवाणी अथवा साधु की निंदा कर सकता है कि इसके योग से मुझे रोग हुआ है। यदि निर्माल्य आदि से स्वस्थ हो जाए तो वह सबके समक्ष साधु की चाटुकारिता कर सकता है कि इनके योग से मैं स्वस्थ हो गया। उसकी प्रशंसा
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy