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________________ 98... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन ____(iii) आदेश- यह भिक्षा निर्ग्रन्थ (जैन), शाक्य (बौद्ध साधु), तापस (वनवासी साधु), गैरूक (गैरूए वस्त्र पहनने वाले त्रिदंडी) और आजीवक (गौशालक मतानुयायी) इन पाँच प्रकार के श्रमणों को दूंगा- इस तरह संकल्प पूर्वक बनाई गई भिक्षा आदेश है। ___(iv) समादेश – 'यह भिक्षा जैन श्रमण को ही दूंगा' ऐसी संकल्पित भिक्षा समादेश है। ___ सार रूप में कहा जाए तो भिक्षाचरों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार उद्देश, विभिन्न धर्मावलम्बियों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार समुद्देश, श्रमणों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार आदेश और जैन साधुओं के उद्देश्य से निष्पन्न आहार समादेश कहलाता है। उद्दिष्ट, कृत और कर्म को उपर्युक्त चार भेदों से गुणा करने पर विभाग औद्देशिक के 12 भेद हो जाते हैं। नियुक्तिकार ने इन 12 भेदों के अवान्तर भेद भी किए हैं। उद्दिष्ट औद्देशिक आदि प्रत्येक छिन्न और अच्छिन्न भेद से दो प्रकार के होते हैं। छिन्न का अर्थ है नियमित और अच्छिन्न का अर्थ है अनियमित। इनके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार भेद होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक के आठ भेद हो जाते हैं। 12 भेदों को 8 से गुणा करने पर औद्देशिक दोष के 96 भेद होते हैं।38 ___ परिणाम - दशवैकालिक सूत्र के अनुसार औद्देशिक आहार करने वाला मुनि षट्कायिक जीवों की हिंसा का भागी बनता है क्योंकि भोजन पकाने में पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे हुए बस-स्थावर जीवों का भी वध होता है। इससे संयम विराधना और आत्म विराधना दोनों होती है।39 3. पूतिकर्म दोष पूति का अर्थ है- दुर्गन्ध युक्त या अपवित्र। पूतिकर्म दोष दो प्रकार का कहा गया है- द्रव्यपूति और भावपूति। सुगंधित या शुद्ध पदार्थ का अशुचि पदार्थ से युक्त होना द्रव्यपूति है तथा शुद्ध आहार में आधाकर्म आदि उद्गम दोष के विभागों के अवयव मात्र का मिश्रण भी भावपूति है।1 जिस प्रकार अशुचि पदार्थ का एक कण भी पवित्र भोजन को अपवित्र एवं अग्राह्य बना देता है उसी प्रकार दोष युक्त आहार का लेश मात्र भी निर्दोष आहार
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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