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________________ सम्पादकीय भारतीय संस्कृति ऋषि-महर्षियों द्वारा संचालित अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। आर्य सभ्यता एवं समाज को आत्मोन्मुखी दिशा देने एवं उसे विश्व के समक्ष आदर्श रूप में स्थापित करने का श्रेय इन्हीं महात्माओं को जाता है। संत गृहस्थ वर्ग को आध्यात्मिक उन्नति एवं संसार विरक्ति का मार्ग बताते हैं तथा गृहस्थ इसके प्रतिफल स्वरूप उनकी व्यवहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है एवं जीवन यापन में सहयोगी बनता है। ___साधु संतों की आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। जिनके लिए वह गृहस्थ वर्ग पर आश्रित रहते हैं। यह कह सकते हैं कि उनकी आध्यात्मिक साधना में किसी प्रकार की बाधा न आए या क्षति न पहुँचे इस हेतु गृहस्थ उन्हें सम्पूर्ण दायित्वों से मुक्त रखने का प्रयत्न करता है। जीवन यापन के लिए प्रमुख रूप से तीन आवश्यकताएँ जरूरी मानी गई हैं- रोटी, कपड़ा और मकान। संत कभी भी एक स्थान पर नहीं रहते अत: जहाँ जो स्थान मिल जाए वहीं उनका घर बन जाता है। दो जोड़ी वस्त्र की पूर्ति तो कहीं भी रहकर हो सकती है। परंतु सबसे महत्त्वपूर्ण है निर्दोष आहार की संप्राप्ति। सभी भारतीय परम्पराओं ने इस हेतु भिक्षावृत्ति का उल्लेख किया है। भिक्षा अर्थात मांगकर या याचना द्वारा भोजन आदि प्राप्त करना। इसी कारण साधु को भिक्षु की उपमा भी दी गई है। वैदिक परम्परा में मुनि के लिए चार आवश्यक क्रियाएँ बताई हैं जिनमें से एक भिक्षा है। नारद ने मुनि के लिए भिक्षावृत्ति को राजदण्डवत आवश्यक माना है। बौद्ध परम्परा में तो श्रमण को भिक्षु ही कहा जाता है। उनकी आचारवृत्ति प्राय: जैन मुनियों के ही समान हैं। जातक कथा एवं बौद्ध ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर मुनियों द्वारा भिक्षा गमन का उल्लेख मिलता है। जैन श्रमण के लिए आवश्यकताओं के निर्वाह का एक मात्र साधन भिक्षावृत्ति है। परन्तु यदि जैन, बौद्ध एवं दैहिक संतों की भिक्षावृत्ति में तुलना की जाए तो जैन मुनि की भिक्षा वृत्ति अनेक नियम-उपनियम से युक्त एक कठिन चर्या है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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