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________________ 58... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन खिड़कियाँ, झरोखें, संधिस्थल (चोर आदि के द्वारा लगाई हुई सेंध) अथवा जलगृह को न देखें तथा शंका उत्पन्न करने वाले अन्य स्थानों को भी न देखें। • भिक्षाचर्या करने वाला मुनि राजा, गृहपतियों और आरक्षिकों (गुप्त मंत्रणा) के निवास स्थानों का दूर से ही परित्याग करें, क्योंकि उस ओर गमन करने से संक्लेश पैदा होने की संभावना रहती है।21 गृह प्रवेश सम्बन्धी नियम- जैन श्रमण के लिए निंदित कुल में, मामक गृह (गृह स्वामी द्वारा जहाँ प्रवेश करना निषिद्ध हो, उस घर) में एवं अप्रीतिकर कुल में भिक्षार्थ जाने का निषेध किया गया है, इसलिए भिक्षा इच्छुक मुनि इन कुलों में प्रवेश न करें। . जैन साधु शिष्टाचार का ज्ञाता और विवेकशील होता है अत: गृह स्वामी की आज्ञा लिये बिना किसी घर में प्रवेश न करें। ____ यदि घर का मुख्य द्वार सन (पटसन या अलसी) से बने हुए पर्दा अथवा वस्त्रादि से ढंका हआ हो तो उसे स्वयं न हटाये और न ही बन्द दरवाजे को खोलकर गृह में प्रवेश करें। पर्दा हटाने का निषेध इसलिए किया गया है कि कई बार गृहस्थ लोग अपने घर के दरवाजे को सन की चादर या वस्त्र से ढंक देते हैं और निश्चित होकर घर में खाते-पीते, आराम करते हैं अथवा गृहणियाँ स्नानादि करती हैं। उस समय बिना अनुमति लिए यदि कोई द्वार पर से वस्त्र को हटाकर या खोलकर अन्दर चला जाये तो उन्हें बहुत अप्रिय लगता है। कई असभ्य गृहस्थ तो साधुओं को टोक देते हैं। कपाट (चूलिये वाला हो तो उसे) खोलने में जीव हिंसा की संभावना रहती है। यह लौकिक शिष्टाचार के भी विरुद्ध है अत: अनुमति लिये बिना ऐसा न करें। • जिस घर का द्वार नीचा हो, अंधेरा छाया हुआ हो, जिस कक्ष में फूल, बीज आदि बिखरे हए हों तथा जो कक्ष तत्काल लीपा हुआ एवं गीला हो मुनि उस घर में भिक्षार्थ प्रवेश न करें क्योंकि वहाँ जीव-जन्तु न दिखने से ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, अंधेरे में दाता के या स्वयं के गिर पड़ने की आशंका रहती है। तत्काल लीपे एवं गीले आंगन पर चलने से जलकाय एवं संपातिम जीवों की विराधना होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार तत्काल लीपे एवं गीले आंगन में प्रवेश करने से आत्म विराधना और संयम विराधना तथा बीजादि बिखरे रहने पर सचित्त संघट्टा की संभावना भी रहती है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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